28 सितंबर, 2022

अज्ञात स्वर्ग - -

उस एक बिंदु तक पहुँचने के लिए हर शख़्स
रहता है बेक़रार, कभी चाहता है ओढ़ना
इंद्रधनुषी पोशाक, सजल बूंदों के
चन्द्रहार, कभी गहन चुप्पी
और कभी उन्मुक्त
जल प्रपात, हर
एक चेहरे
के नेपथ्य में छुपे होते हैं अदृश्य प्रतिबिंब कई
हज़ार, उस एक बिंदु तक पहुँचने के लिए
हर शख़्स रहता है बेक़रार। उस क्षण
भंगुर ख़्वाब में है अज्ञात स्वर्ग
का कोई नाज़ुक अहसास,
या प्रणय सुधा की
प्यास, हर
एक सोच में रहती है किसी न किसी मंज़िल
की आस, अंदर का रहस्य होता है बहुत
गहरा, आंखें देखती हैं केवल फूलों
से सजा मुख्य द्वार, उस एक
बिंदु तक पहुँचने के लिए
हर शख़्स रहता है
बेक़रार। हम
बहुधा उसे
पा कर भी खो देते हैं, बहुत कठिन है अग्नि
वलय से हो कर गुज़रना, हर हाल में तै
है मुट्ठियों में बंद, मोह माया का
एक दिन बिखरना, अनंत
कालीन प्रयास से
कहीं जा कर
मिलता
है विश्वसनीयता का पुरस्कार, उस एक - -
बिंदु तक पहुँचने के लिए हर शख़्स
रहता है बेक़रार।
* *
- - शांतनु सान्याल




15 सितंबर, 2022

त्रिकोण के मध्य - -

 

कुछ नदियां अपने गर्भ में रखती

हैं अंतहीन गहराइयां, देह की

असंख्य शिराओं से हो 

कर बहते हैं अणु

जल स्रोत, वो

बहा ले जाते

हैं अपने

संग

सड़े गले फूल, शव वस्त्र, भीगे

हुए मोह डोर, स्वप्निल नेहों

की जालीदार  छाइयाँ ।

कई रातों की कोई

सुबह नहीं 

होतीं

फिर भी उन्हें चलना होता है

दिगंत पार तक, जीवन के

वक्ष स्थल में जलता

रहता है एक 

अमरदीप,

बस हम

देख

नहीं पाते इस पार से उस पार

तक, सुबह घास के ऊपर

बूंद बूंद बिखरी होती

हैं अनगिनत 

कहानियां ।

हर एक

प्रातः

मैं चाहता हूं एक नई शुरुआत,

कुछ वृक्ष आकाश कभी

नहीं छूते लेकिन

उनके अदृश्य

मूल वसुधा

के सीने

में 

आंक जाते हैं नए पौधों के देश

विराट, कभी नहीं मरती

 नारी, नदी और वृक्ष 

की परछाइयां,

इन्हीं तीनों

के मध्य

मैं

खोजता हूँ अपने अस्तित्व की

अशेष गहराइयां ।

**

- - शांतनु सान्याल 



26 अगस्त, 2022

नियति के हवाले - -

एक अजीब से ऊहापोह में जी रहे हैं सभी,
राग दरबारी के सुर में सुर मिलाते
हुए, रंगीन प्यालों में भर कर
असत्य का विष पी रहे
हैं सभी । किसी
एक बिंदु
पर
आ रुक सी गई है उत्क्रांति, मुखौटे पर है
दर्ज, पुरसुकून अमन की कशीदाकारी,
दरअसल सीने के अंदर है मौजूद
अशांति ही अशांति । चौखट
पर आ कर न आवाज़
दो यूँ सूदखोर
महाजन
की
तरह, कुछ वक़्त चाहिए वजूद को फिर
से टटोलने के लिए, मृत नदी की
तरह बेसुध पड़ा है चिराग़ों
का जुलूस, बहुत कुछ
खोना होता है,
खुलेआम
सच
बोलने के लिए । तथाकथित मसीहा ने
ही कल रात जलाई है बस्तियां,
आज सुबह वही शख़्स
दे रहा है दोस्ती
पर तक़रीर,
लोग
भी
हैं वही लकीर के फ़क़ीर, कर रहे हैं सिर
झुकाए तस्लीम अपनी बिखरी
हुई तक़दीर।
* *
- - शांतनु सान्याल  
 
 


25 अगस्त, 2022

पांथ पखेरू - -

उस पथ का हूँ पांथस्थ मैं जहाँ मिलते
हैं सागर और आकाश, कुछ पल
का ठहराव, कुछ पल ख़ुद
से संवाद, यूँ ही चलता
रहता है जीवन
प्रवास,
समय का हिंडोला नहीं थमता, कभी
तुम हो शून्य पर, और मैं पृथ्वी
पर एकाकी, कभी खिलते
हैं नागफणी के फूल,
 और कभी
असमय
मुरझाए मधुमास, दिवा - निशि अंतहीन
है अंतरतम की यात्रा, उतार चढ़ाव,
शहर जंगल, सरल वक्राकार,
शब्दों का उत्थान पतन,
पीछे मुड़ कर देखने
का नहीं मिलता
अवकाश,
यूँ तो हर शख़्स है यहाँ अपने आप में
गुम, फिर भी पहचानते हैं मुझे
चाँदनी रात, जुगनुओं के
नील प्रकाश, भोर
के बटुए में
बंद सुबह
की
नाज़ुक धूप, गुलाब खिलने की एक
छोटी सी आस, मरुद्यान में
कहीं है एक कुहासामय
पांथ शाला, कुछ
पल का विश्राम,
कुछ क्षण
पुनर्जीवन का एहसास, अश्रु बूंद के - -
अतिरिक्त भी बहुत कुछ है
मेरे पास, उस पथ का
हूँ पांथस्थ मैं जहाँ
मिलते हैं सागर
और आकाश,
आहत
पांथ पखेरू को है पुनः उड़ने का विश्वास !
* *
- - शांतनु सान्याल

 
 

13 अगस्त, 2022

माया मृदंग - -

न तुम कुछ कह सके, न ओंठ मेरे ही हिले,
सब कुछ अनसुना ही रहा, सिहरन के
मध्य, सिर्फ़ बजता रहा समय
का मायामृदंग, सुबह की
बारिश में फिर खिले
हैं नाज़ुक गुलाब,
शायद दिन
गुज़रे
अपने आप में लाजवाब, कुछ दूर ही सही
चले तो हम एक संग, सिहरन के
मध्य, सिर्फ़ बजता रहा
समय का माया -
मृदंग । एक
बिंदु
रौशनी जो उभरती है दिगंत रेखा के उस
पार, बौछार से फूल तो झरेंगे ही
फिर उन का शोक कैसा,
बादलों के नेपथ्य
में है कहीं
उजालों
का
शहर, ये अँधेरा है कुछ ही पलों का इनका
भला अफ़सोस कैसा, किनारे पर आ
कर कहाँ रुकते हैं महा सागर के
विक्षिप्त तरंग, सिहरन के
मध्य, सिर्फ़ बजता
रहा समय का
माया मृदंग ।
* *
- - शांतनु सान्याल
   

11 अगस्त, 2022

रूपांतरण - -

एक पगडंडी झाड़ियों से ढकी हुई, जाती है
बहुत दूर, छुपते छुपाते, उस जगह
जहाँ पर उतरती है सुरमयी
शाम, ऊँचे ऊँचे पेड़
की परछाइयां,
सहसा
जी
उठते हैं एक दूसरे को छूने के लिए, उन - -
निस्तब्ध पलों में हमारे दरमियां,
दस्तक देते हैं जल प्रपात
की रहस्यमयी कुछ
सरगोशियां,
धूसर
पर्वतों में दिन का सफ़र होता है तमाम,
उस जगह पर हमारे सिवा कोई
नहीं होता, जहाँ पर उतरती
है सुरमयी शाम। उन
निझुम पलों में
ज़िन्दगी
छूना
चाहती है प्रणयी अन्तःस्थल, ईशान - -
कोण में उभरते हैं धीरे धीरे कुछ
मेघ दल, हवाओं के साथ
उड़ आते हैं हज़ार
ख़्वाहिशों के
चिरहरित
जंगल,
कुछ ख़्वाबों के कोष खुलने को होते हैं
तब बेक़रार, रेशमी गुच्छों से
उभर कर रात करती है
तब ज़िन्दगी का
स्वागत, जिस्म
को मिलता
उन पलों
में इक
पुरसुकूं आराम, तितलियों के नाज़ुक
परों पर लिखा होता है कहीं
तुम्हारा मधुर नाम !
* *
- - शांतनु सान्याल
















09 अगस्त, 2022

अस्वीकृत चिट्ठी - -

उस अथाह गहराई तक उतरना चाहूंगा, जहां
लफ़्ज़ों का तिलिस्म थक जाए, एक
एहसास जो ख़ामोश रह कर
भी दिल की परतों को
खोल दे, जो आज
तक कोई न
कह सका
वो बात
सरे आम बेझिझक सभी से बोल दे, मैं न - -
चाह कर भी आज, इस पल, तुम से
क्षमा चाहता हूँ ताकि तुम्हारे
दिल में नफ़रतों का
उठता हुआ
बवंडर
रुक
जाए, उस अथाह गहराई तक उतरना चाहूंगा,
जहां लफ़्ज़ों का तिलिस्म थक जाए।
तुकबंदियों से कहीं मीलों दूर हैं,
संवेदनाओं की दुनिया,
कुछ जुगनुओं की
टिमटिमाहट
में खेलते
हैं अर्द्ध
नग्न बच्चे, मासूम सीने के पृष्ठों में, कहीं - -
आबाद हैं मानव बस्तियां, टूटते ख़्वाबों
से कोई कह दे कि बिखरने से पहले,
नम पलकों पर इक शबनमी
फ़ाया रख जाए, उस
अथाह गहराई
तक उतरना
चाहूंगा,
जहां
लफ़्ज़ों का तिलिस्म थक जाए। चाँद के अक्स
से पेट की भूख नहीं थमती, ख़ुदा के लिए
झुलसा हुआ ख़्वाब न दिखाए कोई,
ख़ाली मर्तबानों में हैं बंद,
छतों की नरम धूप,
अर्थहीन है इस
पल चाहतों
को पुनः
सेंकना,
शब्दों के खेल से यूँ बारहा दिल को न बहलाए
कोई, मुझे नहीं चाहिए तुम्हारा राहतों
का झूठा ख़त, नामावर से जा कहे
कोई, दहलीज़ पे ही वो रुक जाए,
उस अथाह गहराई तक
उतरना चाहूंगा,
जहां लफ़्ज़ों
का
तिलिस्म थक जाए - -
* *
- - शांतनु सान्याल

 
 

 
















07 अगस्त, 2022

जी उठेंगे इक दिन - -

हम लापता ज़रूर हैं लेकिन विलुप्त नहीं,
प्रवासी पक्षियों के साथ एक दिन
लौट आएंगे, हमारा इंतज़ार
करना, हम अदृश्य हैं
लेकिन गुप्त
नहीं, हम
लापता
ज़रूर हैं लेकिन विलुप्त नहीं । परछाइयों
के शहर में झांकती हैं कुछ रौशन -
दान की रौशनी, अंधेरों का
गणित अपनी जगह
है यथावत, दो
दिन की
होती
है
सिर्फ़ रुपहली चाँदनी, पल भर के लिए
हम ने मूंदी है पलकें, सीने का
आग्नेय गिरि लेकिन
विसुप्त नहीं,
हम लापता
ज़रूर
हैं
लेकिन विलुप्त नहीं । मुकुट विहीन है
ज़िन्दगी तो क्या हुआ, पतझर
केवल किसी एक के लिए
आख़री वसीयत
तो नहीं, वो
सभी
सूखी टहनियों में कुछ ख़्वाब अभी तक
हैं ज़िंदा, ये ज़मीं और खुला खुला
सा आसमां किसी एक शख़्स
की मिल्कियत तो नहीं,
ओझल हैं बहरहाल
ज़माने की
नज़र
से,
जी उठेंगे ज़रूर इक दिन, हम कोई - -
पत्थर अभिशप्त नहीं, हम
लापता ज़रूर हैं लेकिन
विलुप्त
नहीं ।
**
- - शांतनु सान्याल  

   
 




04 अगस्त, 2022

उजान देश की ओर - -

हो चाहे सघन बरसात की रात, या धूसर
ग्रीष्म आकाश, सतत प्रवाहित हो
तुम, कभी पारापार अंतहीन,
और कभी संकुचित
जलधार, तुम्हें
नहीं ज़रा
भी
कोई अवकाश, हो चाहे सघन बरसात की
रात, या धूसर ग्रीष्म आकाश। तुम्हें
बांधने की तमाम कोशिशें होती
हैं विफल, फिर भी स्पृहा
तंतुओं से हो कर तुम
सतत अदृश्य
बहते हो,
कभी इस मोड़ से मुड़ कर कभी भंवर पथ
से हो कर अनजान किनारों से गुज़रते
हो, स्पृहा तंतुओं से हो कर तुम
सतत अदृश्य बहते हो। इस
बहाव यात्रा की मंज़िल
का पता कोई भी
नहीं जानता,
मौन सभी
अपनी
जगह पड़े रहते हैं, अर्द्ध डूबे हुए जर्जर घाट,  
उदासीन संध्या की नीरवता, दूर तक
उठता हुआ धुआं, अवहेलित
टूटी हुई नाव, स्मृतियों
की उम्र होती है
बहुत छोटी,
सभी
उभरे हुए द्वीप एक दिन क्रमशः हो जाते
हैं शून्य सपाट, मौन सभी अपनी
जगह पड़े रहते हैं, अर्द्ध डूबे
हुए जर्जर घाट।
* *
- - शांतनु सान्याल
 
 



02 अगस्त, 2022

अपरिभाषित पल - -

 

मायामृग की तरह भटका हूँ मैं सघन अरण्य
से ले कर विस्तृत आकाश गंगा के रास्ते,
फिर भी अशेष ही रही नील मायावी
रात्रि, झरते हुए निशिगंधा के
फूल, अंतहीन सुरभित
अभिलाष, चक्रमध्य
से ले कर अनहद
तक किया,
उन्हें
तलाश, अनबुझ ही रही फिर भी जीवन की
प्यास, तट बदलती नदी हो या अपलक
निहारती यामिनी, दूर तक थी
असीम शून्यता, जा चुके
थे सभी दिगंत पार,
जीवन के सह -
यात्री, फिर
भी
अशेष ही रही नील मायावी रात्रि । कस्तूरी
गंध की तरह हैं उन्मत्त सभी जीवन की
चाहतें, टीस की अंध गहराइयों में
खोजता हूँ, बेवजह ही मैं पल
भर की राहतें, किसे क्या
मिला या न मिला  
सब कुछ है
लिखा
हुआ,
नियति की है अपनी ही मजबूरी, कभी मिले
ऐसे के बिछड़े ही न थे, कभी लोगों ने
ख़ुद ही बनायीं सहस्त्र कोस की
दूरी, कभी हुई सघन वृष्टि
जिसकी कोई उम्मीद
न थी, और कभी
लौट आई
सारा
शहर घूम के, फिर भी सूखी की सूखी ही रही
मेरे मन की रंगीन छतरी, फिर भी अशेष
ही रही नील मायावी
रात्रि।
* *
- - शांतनु सान्याल

29 जुलाई, 2022

सभी थे ख़ामोश - -

हज़ार तिर्यक रेखाओं के मध्य बनता है
एक घोंसला, अथक उड़ानों के बाद
कहीं जा कर कुछ श्वेत वृत्तों
में छुपे रहते हैं पीत -
वर्णी सपनों के
कण,
बारम्बार बिखरने के बाद भी जीवन नहीं
खोता है अपना हौसला, हज़ार तिर्यक
रेखाओं के मध्य बनता है एक
घोंसला । न जाने कितने
सांप सीढ़ियों से
उतर कर भी
हम नहीं
भूलते
आरोहण, ज़रूरी नहीं हासिल हों जीवन
में मनचाही वस्तु, अंतरतम का
संतोष ही होता है सच्चा
आभूषण, न जाने
किसे करना
चाहता है
परास्त,
झूल
रहा है तू अपने ही अंदर, अट्टहास कर - -
रहा है समय का झूला, अंतिम
प्रहर में थे सब चुप, क्या
मेरा ईश और क्या
तेरा मौला,
हज़ार
तिर्यक
रेखाओं के मध्य बनता है एक घोंसला ।
* *
- - शांतनु सान्याल
 
 

25 जुलाई, 2022

ख़्वाब बिल्लौरी - -

पिघलती हुई हिमनद के अंतिम नोक पर
कहीं, इक ठहरा हुआ सा बिल्लौरी
ख़्वाब हो तुम, छू लूँ तुम्हें
बेख़ुदी में सुबह से
पहले, कोई
पहेली !
रेशमी धागों में गुथी, वो अक्स लाजवाब
हो तुम, इक ठहरा हुआ सा बिल्लौरी
ख़्वाब हो तुम। अनगिनत हैं
तुम्हारी बज़्म में सितारों
की चहल क़दमी,
कुछ बुझते
चिराग़
के
लौ भी चाहते हैं पुनर ज़िन्दगी, न जाने
कितने जन्मों के बाद  भटकती
रूहों का, पुरसुकूं इन्तख़ाब
हो तुम, इक ठहरा
हुआ सा बिल्लौरी
ख़्वाब हो
तुम।
* *
- - शांतनु सान्याल


 

 

22 जुलाई, 2022

उजाले का क़तरा - -

 

विस्तृत ख़ामोशी में एक अनंत

अंधकार गुफा तलाशती है

एक उजाले का क़तरा,

सभी गुज़र जाते हैं

अपनी अपनी

राह, कहना

बड़ा ही

सहज

है

कि तुम्हें मुझ से है मुहोब्बत बेपनाह, लेकिन ये भी

सच है कि कौन

किस के लिए 

देर तक है

ठहरा, 

अंधकार गुफा तलाशती है एक

 उजाले का क़तरा ।

अक्सर देखता हूँ

मैं एक ग्राफ़,

सूखी और

भरी नदी

के मध्य,

कुछ

सरकते हुए नम बादल खोजते

हैं वीरान पृष्ठों में अतीत के

पद्य, जीवन का रहस्य 

तब लगता है बहुत 

ही गहरा, अंधकार

गुफा तलाशती

है एक उजाले

का

क़तरा ।

**

- - शांतनु सान्याल 




19 जुलाई, 2022

अमिट सत्य - -

मृत्यु अमिट सत्य है अपनी जगह,

और सत्य की मृत्यु

कभी होती नही, वो 

निर्वस्त्र हो कर 

अंतरतम के

सौंदर्य

को

उजागर करता है, सत्य को

कहने और सुनने का 

साहस ही जीवंत

रखता है मानव

को, वो सभी

धर्म एक

दिन

हो जाएंगे विलीन जो रखते

हैं धर्म को मानवता के

शीर्ष पर, समय हर

एक दंभ का मौन

संहार करता

है, सत्य

की

मृत्यु कभी होती नहीं, वो निर्वस्त्र 

हो कर अंतरतम

के सौंदर्य को उजागर

करता है ।

**

- - शांतनु सान्याल

15 जुलाई, 2022

पुनरागमन - -

हर शख़्स की है अपनी कल्पना, अपनी ही
भविष्यवाणी, जल प्रलय हो या हिम -
युग की वापसी, या भस्मीभूत
होती हुई ये ख़ूबसूरत
पृथ्वी, शून्य से
शून्य तक
फिर भी
रहती है कहीं न कहीं, आबाद ये यायावर
ज़िन्दगी ! सभी कुछ बिखर जाएंगे
एक दिन, सरल कहाँ, रेत के
घरौंदों को पागल लहरों
से बचाना, बिखरे
पड़े रहेंगे बस
कुछ सीप
शंख
के खोल, कदाचित मिल जाए तुम्हें कोई
दिव्य मोती, न भूलना, इस किनारे
पर पुनः आना, पाओगे हर
हाल में कहीं न कहीं,
अदृश्य प्रणय की
मौजूदगी,     
शून्य
से शून्य तक फिर भी रहती है कहीं न -
कहीं, आबाद ये यायावर ज़िन्दगी !
* *
- - शांतनु सान्याल   

14 जुलाई, 2022

प्रभात पूर्व जागरण - -

मैंने देखा है दूर तक एक जुलूस, हाथों में लिए
हुए पत्थर, और ओंठों पर मानवता का
सिंहनाद, एक विषाक्त प्रवाह में
बहते हुए लोग, बच्चे, बूढ़े,
जवान, स्त्री, पुरुष, न
जाने किस ग्रह को
करना चाहते हैं
आज़ाद,  
हाथों
में लिए हुए पत्थर, और ओंठों पर मानवता -
का सिंहनाद ! रात के अंतिम प्रहर का
कोई दुःस्वप्न, अदृश्य नशे में
धुत लोग, हाथों में लिए
हुए खड्ग - खंजर
बढ़ चले हों जैसे
वध स्थल
की ओर,
न जाने किस मिथ्या प्रतिश्रुति के वशीभूत,
जी रहे हैं लोग विरोधाभास का जीवन,
वसुधैव कुटुम्बकम् के लोग अभी
तक सो रहे हैं बेख़बर, जबकि
हर तरफ है सुलगता
हुआ धर्म -
उन्माद,
हाथों में लिए हुए पत्थर, और ओंठों पर - -
मानवता का सिंहनाद !
* *
- - शांतनु सान्याल












 

10 जुलाई, 2022

असमाप्त दहन - -

अंतहीन होते हैं अभिलाषित वर्षा वन,
ज्वलंत मरुभूमि की तरह वक्ष -
स्थल में रहते हैं अदृश्य
भावनाएं, इस पार से
उस पार तक
विद्यमान,
फिर भी
रहती
है
सदा, मौन ओंठों पर एक हलकी सी -
मुस्कान, ठूंठ भी तलाशते हैं
अपना प्रतिबिम्ब, मौन
होता है लेकिन जल
दर्पण, अंतहीन
होते हैं
अभिलाषित वर्षा वन । नील पर्वतों से
अब भी उठ रहा है धुआं अनवरत,
कहने को तमाम रात बरसे
हैं बादल, कदाचित
अरण्य गर्भ में
बिखरे पड़े
हैं कुछ
स्वप्न क्षत - विक्षत, फिर भी हर हाल
में, नदी के संग उतरता है तलहटी
की ओर, संघर्षरत ये जीवन,
अंतहीन होते हैं
अभिलाषित
वर्षा वन।
* *
- - शांतनु सान्याल
 

08 जुलाई, 2022

आज़ादी ए फ़रेब - -

न कहना किसी से किस्सा ए दग़ाबाज़ी,
कहीं लोग दोस्ती करना न छोड़ दें,
वो महज तस्सवुर है या हक़ीक़ी,
मेरा ख़ुदा या तेरा ईश्वर, न
खोल राज़ ए अक़ीदत,
कि राहे यक़ीं पे
लोग चलना
न छोड़
दें,
कहीं लोग दोस्ती करना न छोड़ दें । वो
सभी क़ाबिल ए फ़ख़्र, महल ओ
क़िले ढह गए, ख़ामोश आह
के आगे, कोई दिव्य
किताब की मर्ज़ी
नहीं चलती,
सैलाब

वक़्त के साथ न जाने कितने शहंशाह
बह गए, न बना कांच के सराय
धुंध भरी वादियों में, कि
तेरे अपने भी तेरे
साथ ठहरना
न छोड़
दें,
कहीं लोग दोस्ती करना न छोड़ दें - -
* *
- - शांतनु सान्याल

 
 

03 जुलाई, 2022

हासिल कुछ भी नहीं - -

न जाने कहाँ गुम हैं सभी वो इंसानी क़ैफ़ियत,
हर एक चेहरे के पीछे छुपा सा है कोई न
कोई वहशी सूरत, किस पर करे
यक़ीं, किस से गले मिलें,
न जाने कैसी आग
सीने में लिए
फिरते
हैं
लोग, ख़ून के रंग में कोई फ़र्क़ नहीं फिर भी
न जाने क्यूँ भूल जाते हैं, बार - बार
उसकी असलियत, न जाने
कहाँ गुम हैं सभी वो
इंसानी क़ैफ़ियत ।
सभी पोथी -
पुराण
के
पृष्ठों पर हैं, बिखरे हुए लहू के दाग़, कौन
रोप गया, उर्वर भूमि के नीचे ज़हर के
बीज, धुआं धुआं  सा उठ रहा है हर
तरफ, कुम्हलाए दरख्तों में
झूलते से हैं नफ़रत के
झाग, ये कैसा
जूनून सा
छाया
है
हर सिम्त, जिधर देखो सिर्फ़ है बर्बरियत
और बर्बरियत, सर झुकाए रो रही है
इंसानियत - -
* *
- - शांतनु सान्याल  
 

14 मई, 2022

निःशर्त हो सब कुछ - -

आंचल की अपनी अलग है मजबूरी
ज़रूरत से ज़ियादा समेटा न
कीजिए, बिखरने दें ख़ुश्बू
की मुग्धता अपनी
ही शर्तों पर,
ब'ज़ोर
हवाओं का रूख़ अपनी तरफ मोड़ा न
कीजिए, दिल की गहराइयों से जो
उठती हैं मौज ए इबादत, वो
आसमां को झुका जाए,
हर एक मोड़ पर
मसीहा नहीं
मिलते,
हर एक शख़्स के सामने अपने हाथ
यूँ ही जोड़ा न कीजिए, न कोई
सरसराहट, न कोई आहट,
मुद्दत हुए गुलशन से
बहारों का कूच
होना, यूँ ही
अचानक
से मेरी
ज़िन्दगी में आप आया न कीजिए, न
जाने क्यूँ वो फेंकते हैं रह रह कर 
इक तिलस्मी छल्ला, अब कोई
ख़्वाब नहीं उभरते मेरी
आँखों में, बेवजह
यूँ ही आधी
रात,गहरी
नींद
को भरमाया न कीजिए, आंचल की
अपनी अलग है मजबूरी
ज़रूरत से ज़ियादा
समेटा न
कीजिए।
* *
- - शांतनु सान्याल
 
    
 

09 मई, 2022

दो घड़ी के उस पार - -

उतरती दुपहरी में हुज़ूर, सुबह का अक्स
न तलाश करो, चल सको, तो चलो
कि दूर तक कोई मरुद्यान
नहीं, देह से लिपटे हैं
बेशुमार थूअर के
ज़ख़्म, इस
यात्रा में
कहीं
कोई अनुताप के लिए स्थान नहीं, जो -
मिल गया वही था, एक मुश्त
नियति का उपहार, जो खो
गया सो गया उसकी
वापसी का अब
न आस करो,
उतरती
दुपहरी में हुज़ूर, सुबह का अक्स न - -
तलाश करो। अजीब से हैं ये सभी
चाहतों के रिश्ते, इक छोर
से लपेटें, तो दूसरा
छोर ख़ुद ब
ख़ुद जाए 
खुल,
योग - वियोग करते रहे उम्र भर, अंतिम
प्रहर में शून्य के सिवा कुछ न मिला,
इक नशे से कुछ कम नहीं ये
ज़िन्दगी, काश आख़री
पहर से पहले ज़रा
सा जाएं संभल,
धूप - छांव
का ग्राफ
अपनी जगह होता है निरंकुश, जो पल -
हैं हासिल अभी वही हैं अनमोल
मोती, जो टूट के बिखर गए
सो बिखर गए उन्हें
सोच के ख़ुद को
न उदास
करो,
उतरती दुपहरी में हुज़ूर, सुबह का अक्स
न तलाश करो।
 * *
- - शांतनु सान्याल
 नागपुर

04 मई, 2022

मुहूर्तों के उस पार - -

ये काठ के खम्बे ही हैं जो थाम रखे हैं
पुल का अस्तित्व, दोनों पार की
दुनिया है सलामत इसी
एक विश्वास पर,
गुज़रना है
हमें
इसी जर्जरित राह से हो कर, नज़र है
टिकी हुई उस पार की ज़िन्दगी
पर, मुहूर्तों का अंक है एक
भूल भुलैया, उम्र नहीं
गुज़रती सपनों
के पूर्वाभास
पर, ये
काठ
के खम्बे ही हैं जो थाम रखे हैं पुल -
का अस्तित्व, दोनों पार की
दुनिया है सलामत इसी
एक विश्वास पर।
ख़ुशियों की
साझेदारी
में ही
है
छुपी हुई दिल की अदृश्य ख़ूबसूरती,
जबकि आजन्म हम भटकते रहे
इस घाट से उस घाट के
दरमियां, फिर भी
पाना नहीं
आसां,
दुःख
दर्द से मुक्ति, कुछ भी असर नहीं -
होता चाहतों के मोहपाश पर,
ये काठ के खम्बे ही हैं जो
थाम रखे हैं पुल का
अस्तित्व, दोनों
पार की
दुनिया
है सलामत इसी एक विश्वास पर। - -
* *
- - शांतनु सान्याल
 

30 अप्रैल, 2022

ख़ुद से साक्षात्कार - -

जन अरण्य में भी बहुधा जीवन होता है
निःसंग, कहने को झिलमिलाते हैं
हर तरफ आलोकमय माला,
निर्लिप्त सा रहता है
मन का आँगन,
और शून्य
होता
है
देह का प्याला, फिके फिके से लगते हैं
इंद्र धनुष के रंग, जन अरण्य में भी
बहुधा जीवन होता है निःसंग ।
इन विराग पलों से ही
निकलते हैं आत्म
परिचय के
ठिकाने,
वो
सभी चेहरे थे क्षणिक, उभरे और पलक
झपकते ही खो गए किधर, कौन
जाने ? शाब्दिक जाल हैं सभी
आत्मीयता के रास्ते,
कोई नहीं मरता
किसी के
वास्ते,
बस
मृग मरीचिका में ढूंढते हैं हम अविरत
अपना अंतरंग, जन अरण्य में
भी बहुधा जीवन होता है
निःसंग ।
* *
- - शांतनु सान्याल

29 अप्रैल, 2022

समानांतर यात्रा - -

अग्नि - पुष्प की तरह उभर आते हैं वो
सभी निखोज स्वप्न, जो दबे रहते
हैं राखरंगीं सुदूर प्रांतरों में,
अशेष हैं सभी रास्ते,
मृग जलों की
दुनिया के
उस
पार, अदृश्य रात्रि निवास की है अपनी
ही अलग ख़ूबसूरती, उम्मीद के
चिराग़ बुझते कभी नहीं
समय के मध्यान्तरों
में, उभर आते हैं
सभी विलुप्त
स्वप्न,
राखरंगीं सुदूर प्रांतरों में। समुद्र सैकत
पर खड़ा हूँ मैं, ले कर हिय में एक
अगाध तृषा, जबकि कुछ बूंद
ही प्रयाप्त हैं जीने के
लिए, टूटे हार की
तरह अक्सर
हम ढूंढते
है एक
रेशमी डोर, सांसों के मोती पिरोने के -
लिए, मध्यम मार्ग पर चल रहा
हूँ मैं, चल रहे हैं दोनों तरफ
धूप और छाया, प्रकृत
समानान्तरों में,
उभर आते
हैं सभी
विलुप्त स्वप्न, राखरंगीं सुदूर प्रांतरों
में।
* *
- - शांतनु सान्याल
   



28 अप्रैल, 2022

निःशब्द कथोपकथन - -

वो पल थे अविस्मरणीय, जो खुले आकाश
के नीचे बिखर गए, अवाक थे तुम
और मैं भी निःशब्द, सिर्फ़
चल रहे थे अंतरिक्ष
में सितारों के
जुलूस !
तुमने कुछ भी न कहा, लेकिन रूह तक जा
पहुंची तुम्हारी वो अनकही बातें, उन
पलों में हम ने जाना जीवन का
सौंदर्य, उन रहस्यमयी
क्षणों में हम भूल
गए दुनिया
की सभी
घातें,
सिर्फ़ कुछ याद रहा तो वो था परस्पर का
एक ख़ामोश, हमआहंगी वो ख़ुलूस,
अवाक थे तुम और मैं भी
निःशब्द, सिर्फ़ चल
रहे थे अंतरिक्ष में
सितारों के
जुलूस !
इक उम्र से कहीं ज़्यादा हम जी चुके हैं -
उन ख़ूबसूरत लम्हों के दरमियां,
क्या पाया हम ने और क्या
कुछ खो दिया उनका
हिसाब कौन करे,
चाहे बना लो
जितने भी
अमूल्य शीशमहल, पलक झपकते ही
हैं सभी ताश के आसमां, सिर्फ़
रहते हैं सदा रौशन दिलों
में मुहोब्बत के
फ़ानूस,
अवाक थे तुम और मैं भी निःशब्द, सिर्फ़
चल रहे थे अंतरिक्ष में
सितारों के
जुलूस !
* *
- - शांतनु सान्याल  

27 अप्रैल, 2022

शब्द रचना - -

वर्ग पहेली की तरह है ये रात, लफ़्ज़ों
के जाल हैं खुली निगाहों के ख़्वाब,
पलकों के चिलमन में हैं छुपे
हुए, अनबूझ सवालों के
जवाब, कोई ख़ुश्बू
है जो अंदर
तक छू
जाती है रूह की गहराई, इक अंतरंग
छुअन है कोई, या प्रणयी चंद्र -
सुधा, सुलगते पलों में है
ये किस की संदली
परछाई, कुछ
ही पलों
का
है ये खेल पुरअसरार, फिर वही थके
पांव उतरती है चांदनी, बिखरे
पड़े रहते हैं आख़री पहर
बेतरतीब से सभी
साहिल पर
सीप के
खोल,
कुछ शब्द अनमोल, शून्य संदूक में
खोजते हैं हम बेवजह ही गुमशुदा
असबाब, वर्ग पहेली की तरह
है ये रात, लफ़्ज़ों के
जाल हैं खुली
निगाहों के
ख़्वाब।
* *
- - शांतनु सान्याल
 
 
 

25 अप्रैल, 2022

मिलने की बेक़रारी - -

उतरती है चाँदनी धीरे - धीरे, मुंडेरों से
हो कर, झूलते अहातों तक, फिर भी
मिलती नहीं, रूह ए मकां  को
तस्कीं, इक रेशमी अंधेरा
सा घिरा रहता है दिल
की गहराइयों तक,
हम खोजते हैं
ख़ुद को
अपने ही बिम्ब के उस पार, जबकि ये
वजूद रहता है मौजूद, यहीं पे कहीं,
फिर भी मिलती नहीं, रूह ए
मकां को तस्कीं। हर सिम्त
हैं बिखरे हुए अनगिनत
चेहरे, उम्र गुज़र
जाती है बस
असल
चेहरे की तलाश में, इक लकीर की तरह
खींची हुई है नियति की डोर, दो
स्तंभों के बीच, गुज़रती है
जिस पर ये ज़िन्दगी
लिए सीने में
जीने की
आस,
हज़ार बार टूटे, हज़ार बार जुड़ के उभरे,
बिखरते नहीं फिर भी मुहोब्बत के
एहसास, हर सुबह हम तुमसे
मिलेंगे वहीं ,जहाँ मिलते
हैं रोज़ ये आसमान
और बेक़रार सी
ज़मीं, फिर
भी
मिलती नहीं, रूह ए मकां को तस्कीं । - -
* *
- - शांतनु सान्याल
 

22 अप्रैल, 2022

लापता सूत्र - -

दिन के उजाले में नहीं डूबते अंधेरों के
चिराग़, परछाइयों के हैं सब खेल
जो दिखता है खुली निगाह से
वो नहीं मुक्कमल जहां,
पृथ्वी के उस पार
भी है जीवन
का एक
भाग,
दिन के उजाले में नहीं डूबते अंधेरों के
चिराग़ । राज पथ के दोनों तरफ हैं
दो अलग दुनिया, जोड़ता है
जिन्हें अदृश्य मुहोब्बतों
का पुल, फिर भी
दूरियों को
पाटना
नहीं
आसां, ढूंढती हैं दूर तक किसे तेरी ये -
प्यासी निगाहें, जो खो गए धुंधले
क्षितिज के पार, नहीं मिलता
उम्र भर उनका निशां,
जो छुपा रहा मेरे
अंतरतम में
उस का
कोई न दे पाया सठिक सुराग़, दिन के
उजाले में नहीं डूबते अंधेरों
के चिराग़ ।
* *
- - शांतनु सान्याल

14 अप्रैल, 2022

यथावत हैं सभी रास्ते - -

सभी आवरण देता है उतार, निःशब्द ये
गाढ़ अंधकार, चंद्र विहीन आकाश
में है बदस्तूर सितारों का
उत्थान - पतन, शूल
सेज पर होता है
तब अक्सर
एकाकी
ये जीवन, झुरमुटों से झांकते हैं कुछ -
आत्मीय स्वजन, उजालों तक हैं
सभी सिमित ये अंतरंग
चेहरे, अंधेरे में किसी
को नहीं किसी
से कोई भी
सरोकार,
सभी आवरण देता है उतार, निःशब्द ये
गाढ़ अंधकार। मायाविनी इस रात
की गहराई में ढूंढता हूँ मैं अपनी
ही गुमशुदा छाया, अंतिम
प्रहर में मिलने की
प्रतिश्रुति थी
बहुत ही
झूठी,
क्षितिज पर ठहरा रहा देर तक, लेकिन
मुझसे मिलने वहां कोई नहीं आया,
वही दूर तक फैली हुई है धुंध
की चादर, वही रास्ते
पेंचदार, सभी
आवरण
देता है
उतार, निःशब्द ये गाढ़ अंधकार - - -
* *
- - शांतनु सान्याल
 
 

 

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