वर्ग पहेली की तरह है ये रात, लफ़्ज़ों
के जाल हैं खुली निगाहों के ख़्वाब,
पलकों के चिलमन में हैं छुपे
हुए, अनबूझ सवालों के
जवाब, कोई ख़ुश्बू
है जो अंदर
तक छू
जाती है रूह की गहराई, इक अंतरंग
छुअन है कोई, या प्रणयी चंद्र -
सुधा, सुलगते पलों में है
ये किस की संदली
परछाई, कुछ
ही पलों
का
है ये खेल पुरअसरार, फिर वही थके
पांव उतरती है चांदनी, बिखरे
पड़े रहते हैं आख़री पहर
बेतरतीब से सभी
साहिल पर
सीप के
खोल,
कुछ शब्द अनमोल, शून्य संदूक में
खोजते हैं हम बेवजह ही गुमशुदा
असबाब, वर्ग पहेली की तरह
है ये रात, लफ़्ज़ों के
जाल हैं खुली
निगाहों के
ख़्वाब।
* *
- - शांतनु सान्याल
27 अप्रैल, 2022
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ह्रदय तल से आभार नमन सह।
जवाब देंहटाएंवाह.बहुत सुन्दर
जवाब देंहटाएंह्रदय तल से आभार नमन सह।
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