दूसरी मंज़िल से उतर कर पार्क तक - -
सिमटती है ज़िन्दगी, यहाँ सूर्य
तपता है पूरी शिद्दत से,
पल्लव विहीन
मौलश्री के
नीचे
जा कहीं रुकता है कुछ पलों का पर्यटन,
थके हुए चेहरों में अपना अक्स
ढूंढता है ये जीवन । तुम्हारे
देश में शायद, बहती
हों सर्द हवाएं,
यहाँ फ़ुर्सत
ही नहीं
मिलती कि निकलें अग्नि वलय से - -
बाहर, थोड़ी दूर जा टहल आएं,
फिर भी नहीं थमता है
चाहतों का अंतहीन
भ्रमण, थके हुए
चेहरों में
अपना
अक्स ढूंढता है ये जीवन । मन ही मन
बहुत दूर जा कर लौट आया हूँ,
वही नदी के दो किनारे,
इस तट कोलाहल
और उस पार
है विस्तृत
ख़ामोशी,
सोचता हूँ जो कुछ है हासिल इस पल
वही सत्य है, बाक़ी अर्थहीन हैं
सभी दुःख और ख़ुशी,
अशेष रहता है
चिरकाल
स्व -
तर्पण, नियति के हाथ होते हैं हमेशा
ही महा कृपण, थके हुए चेहरों में
अपना अक्स ढूंढता है
ये जीवन ।
* *
- - शांतनु सान्याल
07 अप्रैल, 2022
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बहुत सुन्दर शांतनु सान्याल जी !
जवाब देंहटाएंइन पंक्तियों में आपने ज़िंदगी का पूरा फ़लसफ़ा समेट दिया है.
ह्रदय तल से आभार आदरणीय।
हटाएंह्रदय तल से आभार आदरणीया।
जवाब देंहटाएंबेहतरीन प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंह्रदय तल से आभार आदरणीय।
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