सभी आवरण देता है उतार, निःशब्द ये
गाढ़ अंधकार, चंद्र विहीन आकाश
में है बदस्तूर सितारों का
उत्थान - पतन, शूल
सेज पर होता है
तब अक्सर
एकाकी
ये जीवन, झुरमुटों से झांकते हैं कुछ -
आत्मीय स्वजन, उजालों तक हैं
सभी सिमित ये अंतरंग
चेहरे, अंधेरे में किसी
को नहीं किसी
से कोई भी
सरोकार,
सभी आवरण देता है उतार, निःशब्द ये
गाढ़ अंधकार। मायाविनी इस रात
की गहराई में ढूंढता हूँ मैं अपनी
ही गुमशुदा छाया, अंतिम
प्रहर में मिलने की
प्रतिश्रुति थी
बहुत ही
झूठी,
क्षितिज पर ठहरा रहा देर तक, लेकिन
मुझसे मिलने वहां कोई नहीं आया,
वही दूर तक फैली हुई है धुंध
की चादर, वही रास्ते
पेंचदार, सभी
आवरण
देता है
उतार, निःशब्द ये गाढ़ अंधकार - - -
* *
- - शांतनु सान्याल
14 अप्रैल, 2022
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
अतीत के पृष्ठों से - - Pages from Past
-
नेपथ्य में कहीं खो गए सभी उन्मुक्त कंठ, अब तो क़दमबोसी का ज़माना है, कौन सुनेगा तेरी मेरी फ़रियाद - - मंचस्थ है द्रौपदी, हाथ जोड़े हुए, कौन उठेग...
-
कुछ भी नहीं बदला हमारे दरमियां, वही कनखियों से देखने की अदा, वही इशारों की ज़बां, हाथ मिलाने की गर्मियां, बस दिलों में वो मिठास न रही, बिछुड़ ...
-
मृत नदी के दोनों तट पर खड़े हैं निशाचर, सुदूर बांस वन में अग्नि रेखा सुलगती सी, कोई नहीं रखता यहाँ दीवार पार की ख़बर, नगर कीर्तन चलता रहता है ...
-
जिसे लोग बरगद समझते रहे, वो बहुत ही बौना निकला, दूर से देखो तो लगे हक़ीक़ी, छू के देखा तो खिलौना निकला, उसके तहरीरों - से बुझे जंगल की आग, दोब...
-
उम्र भर जिनसे की बातें वो आख़िर में पत्थर के दीवार निकले, ज़रा सी चोट से वो घबरा गए, इस देह से हम कई बार निकले, किसे दिखाते ज़ख़्मों के निशां, क...
-
शेष प्रहर के स्वप्न होते हैं बहुत - ही प्रवाही, मंत्रमुग्ध सीढ़ियों से ले जाते हैं पाताल में, कुछ अंतरंग माया, कुछ सम्मोहित छाया, प्रेम, ग्ला...
-
दो चाय की प्यालियां रखी हैं मेज़ के दो किनारे, पड़ी सी है बेसुध कोई मरू नदी दरमियां हमारे, तुम्हारे - ओंठों पे आ कर रुक जाती हैं मृगतृष्णा, पल...
-
बिन कुछ कहे, बिन कुछ बताए, साथ चलते चलते, न जाने कब और कहाँ निःशब्द मुड़ गए वो तमाम सहयात्री। असल में बहुत मुश्किल है जीवन भर का साथ न...
-
वो किसी अनाम फूल की ख़ुश्बू ! बिखरती, तैरती, उड़ती, नीले नभ और रंग भरी धरती के बीच, कोई पंछी जाए इन्द्रधनु से मिलने लाये सात सुर...
-
कुछ स्मृतियां बसती हैं वीरान रेलवे स्टेशन में, गहन निस्तब्धता के बीच, कुछ निरीह स्वप्न नहीं छू पाते सुबह की पहली किरण, बहुत कुछ रहता है असमा...
सुंदर अभिव्यक्ति
जवाब देंहटाएंह्रदय तल से आभार नमन सह।
हटाएंजी नमस्ते ,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार(१५-०४ -२०२२ ) को
'तुम्हें छू कर, गीतों का अंकुर फिर उगाना है'(चर्चा अंक -४४०१) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
सादर
ह्रदय तल से आभार नमन सह।
हटाएंबेहतरीन अभिव्यक्ति, सादर नमस्कार आपको 🙏
जवाब देंहटाएंह्रदय तल से आभार नमन सह।
हटाएंबहुत सुन्दर सृजन
जवाब देंहटाएंह्रदय तल से आभार नमन सह।
हटाएंबहुत अच्छी और सुंदर कविता
जवाब देंहटाएंह्रदय तल से आभार नमन सह।
हटाएं