29 अप्रैल, 2022

समानांतर यात्रा - -

अग्नि - पुष्प की तरह उभर आते हैं वो
सभी निखोज स्वप्न, जो दबे रहते
हैं राखरंगीं सुदूर प्रांतरों में,
अशेष हैं सभी रास्ते,
मृग जलों की
दुनिया के
उस
पार, अदृश्य रात्रि निवास की है अपनी
ही अलग ख़ूबसूरती, उम्मीद के
चिराग़ बुझते कभी नहीं
समय के मध्यान्तरों
में, उभर आते हैं
सभी विलुप्त
स्वप्न,
राखरंगीं सुदूर प्रांतरों में। समुद्र सैकत
पर खड़ा हूँ मैं, ले कर हिय में एक
अगाध तृषा, जबकि कुछ बूंद
ही प्रयाप्त हैं जीने के
लिए, टूटे हार की
तरह अक्सर
हम ढूंढते
है एक
रेशमी डोर, सांसों के मोती पिरोने के -
लिए, मध्यम मार्ग पर चल रहा
हूँ मैं, चल रहे हैं दोनों तरफ
धूप और छाया, प्रकृत
समानान्तरों में,
उभर आते
हैं सभी
विलुप्त स्वप्न, राखरंगीं सुदूर प्रांतरों
में।
* *
- - शांतनु सान्याल
   



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