कुछ नदियां अपने गर्भ में रखती
हैं अंतहीन गहराइयां, देह की
असंख्य शिराओं से हो
कर बहते हैं अणु
जल स्रोत, वो
बहा ले जाते
हैं अपने
संग
सड़े गले फूल, शव वस्त्र, भीगे
हुए मोह डोर, स्वप्निल नेहों
की जालीदार छाइयाँ ।
कई रातों की कोई
सुबह नहीं
होतीं
फिर भी उन्हें चलना होता है
दिगंत पार तक, जीवन के
वक्ष स्थल में जलता
रहता है एक
अमरदीप,
बस हम
देख
नहीं पाते इस पार से उस पार
तक, सुबह घास के ऊपर
बूंद बूंद बिखरी होती
हैं अनगिनत
कहानियां ।
हर एक
प्रातः
मैं चाहता हूं एक नई शुरुआत,
कुछ वृक्ष आकाश कभी
नहीं छूते लेकिन
उनके अदृश्य
मूल वसुधा
के सीने
में
आंक जाते हैं नए पौधों के देश
विराट, कभी नहीं मरती
नारी, नदी और वृक्ष
की परछाइयां,
इन्हीं तीनों
के मध्य
मैं
खोजता हूँ अपने अस्तित्व की
अशेष गहराइयां ।
**
- - शांतनु सान्याल
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (17-09-2022) को "भंग हो गये सारे मानक" (चर्चा अंक 4554) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
कृपया कुछ लिंकों का अवलोकन करें और सकारात्मक टिप्पणी भी दें।
--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
--
डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
असंख्य धन्यवाद मान्यवर / आदरणीया।
हटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (17-09-2022) को "भंग हो गये सारे मानक" (चर्चा अंक 4554) पर भी होगी।
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डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
असंख्य धन्यवाद मान्यवर / आदरणीया।
हटाएंसुंदर सृजन
जवाब देंहटाएंअसंख्य धन्यवाद मान्यवर / आदरणीया।
हटाएंवाह! सराहनीय सृजन हमेशा की तरह।
जवाब देंहटाएंकुछ नदियां अपने गर्भ में रखती
हैं अंतहीन गहराइयां... गज़ब 👌
असंख्य धन्यवाद मान्यवर / आदरणीया।
हटाएंभाई शान्तनु जीकवित्व से परिपूर्ण आपकी कविताएँ सदैव ही एक अद्भुत अहसास छोड़ जाती हैं।
जवाब देंहटाएंकई रातों की कोई
सुबह नहीं
होतीं
फिर भी उन्हें चलना होता है
दिगंत पार तक' - बहुत ही सुन्दर कह गए हैं आप!
असंख्य धन्यवाद मान्यवर / आदरणीया।
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