एक अजीब से ऊहापोह में जी रहे हैं सभी,
राग दरबारी के सुर में सुर मिलाते
हुए, रंगीन प्यालों में भर कर
असत्य का विष पी रहे
हैं सभी । किसी
एक बिंदु
पर
आ रुक सी गई है उत्क्रांति, मुखौटे पर है
दर्ज, पुरसुकून अमन की कशीदाकारी,
दरअसल सीने के अंदर है मौजूद
अशांति ही अशांति । चौखट
पर आ कर न आवाज़
दो यूँ सूदखोर
महाजन
की
तरह, कुछ वक़्त चाहिए वजूद को फिर
से टटोलने के लिए, मृत नदी की
तरह बेसुध पड़ा है चिराग़ों
का जुलूस, बहुत कुछ
खोना होता है,
खुलेआम
सच
बोलने के लिए । तथाकथित मसीहा ने
ही कल रात जलाई है बस्तियां,
आज सुबह वही शख़्स
दे रहा है दोस्ती
पर तक़रीर,
लोग
भी
हैं वही लकीर के फ़क़ीर, कर रहे हैं सिर
झुकाए तस्लीम अपनी बिखरी
हुई तक़दीर।
* *
- - शांतनु सान्याल
26 अगस्त, 2022
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आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (27-08-2022) को "सभ्यता पर ज़ुल्म ढाती है सुरा" (चर्चा अंक-4534) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
कृपया कुछ लिंकों का अवलोकन करें और सकारात्मक टिप्पणी भी दें।
--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
--
डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
असंख्य धन्यवाद मान्यवर / आदरणीया।
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