02 अगस्त, 2022

अपरिभाषित पल - -

 

मायामृग की तरह भटका हूँ मैं सघन अरण्य
से ले कर विस्तृत आकाश गंगा के रास्ते,
फिर भी अशेष ही रही नील मायावी
रात्रि, झरते हुए निशिगंधा के
फूल, अंतहीन सुरभित
अभिलाष, चक्रमध्य
से ले कर अनहद
तक किया,
उन्हें
तलाश, अनबुझ ही रही फिर भी जीवन की
प्यास, तट बदलती नदी हो या अपलक
निहारती यामिनी, दूर तक थी
असीम शून्यता, जा चुके
थे सभी दिगंत पार,
जीवन के सह -
यात्री, फिर
भी
अशेष ही रही नील मायावी रात्रि । कस्तूरी
गंध की तरह हैं उन्मत्त सभी जीवन की
चाहतें, टीस की अंध गहराइयों में
खोजता हूँ, बेवजह ही मैं पल
भर की राहतें, किसे क्या
मिला या न मिला  
सब कुछ है
लिखा
हुआ,
नियति की है अपनी ही मजबूरी, कभी मिले
ऐसे के बिछड़े ही न थे, कभी लोगों ने
ख़ुद ही बनायीं सहस्त्र कोस की
दूरी, कभी हुई सघन वृष्टि
जिसकी कोई उम्मीद
न थी, और कभी
लौट आई
सारा
शहर घूम के, फिर भी सूखी की सूखी ही रही
मेरे मन की रंगीन छतरी, फिर भी अशेष
ही रही नील मायावी
रात्रि।
* *
- - शांतनु सान्याल

2 टिप्‍पणियां:


  1. आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" बुधवार 3 अगस्त 2022 को साझा की गयी है......... पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
    अथ स्वागतम शुभ स्वागतम।
    >>>>>>><<<<<<<
    पुन: भेंट होगी...

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