07 अगस्त, 2022

जी उठेंगे इक दिन - -

हम लापता ज़रूर हैं लेकिन विलुप्त नहीं,
प्रवासी पक्षियों के साथ एक दिन
लौट आएंगे, हमारा इंतज़ार
करना, हम अदृश्य हैं
लेकिन गुप्त
नहीं, हम
लापता
ज़रूर हैं लेकिन विलुप्त नहीं । परछाइयों
के शहर में झांकती हैं कुछ रौशन -
दान की रौशनी, अंधेरों का
गणित अपनी जगह
है यथावत, दो
दिन की
होती
है
सिर्फ़ रुपहली चाँदनी, पल भर के लिए
हम ने मूंदी है पलकें, सीने का
आग्नेय गिरि लेकिन
विसुप्त नहीं,
हम लापता
ज़रूर
हैं
लेकिन विलुप्त नहीं । मुकुट विहीन है
ज़िन्दगी तो क्या हुआ, पतझर
केवल किसी एक के लिए
आख़री वसीयत
तो नहीं, वो
सभी
सूखी टहनियों में कुछ ख़्वाब अभी तक
हैं ज़िंदा, ये ज़मीं और खुला खुला
सा आसमां किसी एक शख़्स
की मिल्कियत तो नहीं,
ओझल हैं बहरहाल
ज़माने की
नज़र
से,
जी उठेंगे ज़रूर इक दिन, हम कोई - -
पत्थर अभिशप्त नहीं, हम
लापता ज़रूर हैं लेकिन
विलुप्त
नहीं ।
**
- - शांतनु सान्याल  

   
 




4 टिप्‍पणियां:

  1. जी नमस्ते ,
    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार (०८-०८ -२०२२ ) को 'इतना सितम अच्छा नहीं अपने सरूर पे'( चर्चा अंक -४५१५) पर भी होगी।
    आप भी सादर आमंत्रित है।
    सादर

    जवाब देंहटाएं
  2. "पत्थर अभिशप्त नहीं, हम
    लापता ज़रूर हैं लेकिन
    विलुप्त
    नहीं "

    बहुत सही कहा सर!

    जवाब देंहटाएं
  3. चढ़ाई पांव नहीं हौसला चढ़ता है , यही हौसला है इस कविता में . यही बात कैसी भी गुरबत में व्यक्ति को हारने नहीं देता । बहुत उत्कृष्ट कविता

    जवाब देंहटाएं

अतीत के पृष्ठों से - - Pages from Past