न तुम कुछ कह सके, न ओंठ मेरे ही हिले,
सब कुछ अनसुना ही रहा, सिहरन के
मध्य, सिर्फ़ बजता रहा समय
का मायामृदंग, सुबह की
बारिश में फिर खिले
हैं नाज़ुक गुलाब,
शायद दिन
गुज़रे
अपने आप में लाजवाब, कुछ दूर ही सही
चले तो हम एक संग, सिहरन के
मध्य, सिर्फ़ बजता रहा
समय का माया -
मृदंग । एक
बिंदु
रौशनी जो उभरती है दिगंत रेखा के उस
पार, बौछार से फूल तो झरेंगे ही
फिर उन का शोक कैसा,
बादलों के नेपथ्य
में है कहीं
उजालों
का
शहर, ये अँधेरा है कुछ ही पलों का इनका
भला अफ़सोस कैसा, किनारे पर आ
कर कहाँ रुकते हैं महा सागर के
विक्षिप्त तरंग, सिहरन के
मध्य, सिर्फ़ बजता
रहा समय का
माया मृदंग ।
* *
- - शांतनु सान्याल
13 अगस्त, 2022
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सच परिवर्तनशील है किसी के लिए रुकता, चलना ही जिंदगी है फिर कैसा किसी बात का शोक करके बैठना
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर .
असंख्य धन्यवाद मान्यवर / आदरणीया।
हटाएंबहुत खूब
जवाब देंहटाएंअसंख्य धन्यवाद मान्यवर / आदरणीया।
हटाएंसुंदर कविता।
जवाब देंहटाएंअसंख्य धन्यवाद मान्यवर / आदरणीया।
हटाएंसुंदर लिंक शुक्रिया आपका बहुत बहुत
जवाब देंहटाएंFree Download Diwali Image
असंख्य धन्यवाद मान्यवर / आदरणीया।
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