हो चाहे सघन बरसात की रात, या धूसर
ग्रीष्म आकाश, सतत प्रवाहित हो
तुम, कभी पारापार अंतहीन,
और कभी संकुचित
जलधार, तुम्हें
नहीं ज़रा
भी
कोई अवकाश, हो चाहे सघन बरसात की
रात, या धूसर ग्रीष्म आकाश। तुम्हें
बांधने की तमाम कोशिशें होती
हैं विफल, फिर भी स्पृहा
तंतुओं से हो कर तुम
सतत अदृश्य
बहते हो,
कभी इस मोड़ से मुड़ कर कभी भंवर पथ
से हो कर अनजान किनारों से गुज़रते
हो, स्पृहा तंतुओं से हो कर तुम
सतत अदृश्य बहते हो। इस
बहाव यात्रा की मंज़िल
का पता कोई भी
नहीं जानता,
मौन सभी
अपनी
जगह पड़े रहते हैं, अर्द्ध डूबे हुए जर्जर घाट,
उदासीन संध्या की नीरवता, दूर तक
उठता हुआ धुआं, अवहेलित
टूटी हुई नाव, स्मृतियों
की उम्र होती है
बहुत छोटी,
सभी
उभरे हुए द्वीप एक दिन क्रमशः हो जाते
हैं शून्य सपाट, मौन सभी अपनी
जगह पड़े रहते हैं, अर्द्ध डूबे
हुए जर्जर घाट।
* *
- - शांतनु सान्याल
04 अगस्त, 2022
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सुंदर कविता।
जवाब देंहटाएंअसंख्य धन्यवाद नमन सह ।
हटाएंनमस्ते,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा शुक्रवार 5 अगस्त 2022 को 'युद्द की आशंकाओं में फिर घिर गई है दुनिया' (चर्चा अंक 4512) पर भी होगी। आप भी सादर आमंत्रित है। 12:30 AM के बाद आपकी प्रस्तुति ब्लॉग 'चर्चामंच' पर उपलब्ध होगी।
असंख्य धन्यवाद नमन सह ।
हटाएंबेहद खूबसूरत अभिव्यक्ति...👏👏👏
जवाब देंहटाएंअसंख्य धन्यवाद नमन सह ।
हटाएंवाह
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर
असंख्य धन्यवाद नमन सह ।
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