28 फ़रवरी, 2022

अमन - ताबीज़ - -

जन अरण्य नहीं थमता, उत्सव, समारोह,
युद्ध - त्रासदी के मध्य हो कर, बहता
जाता है जीवन स्रोत, कोई नहीं
सुनता सीमान्त का मौन
क्रंदन, विशालकाय
मीन की तरह
निगल
जाते हैं महादेश, किनारे पर पड़े रहते हैं -
छिन्न भिन्न अर्ध जले हुए मानव
उपनिवेश, कुछ अस्थि पिंजर
कुछ धुंधले स्मृतियों के
अवशेष, बुझ जाते
हैं अपने आप
तथाकथित
मानव
सभ्यता के ज्योत, उत्सव, समारोह,युद्ध
- त्रासदी के मध्य हो कर, बहता
जाता है जीवन स्रोत। कलिंग
हो या सीरिया, ईराक से
ले कर यूक्रेन, वही
जल - साम्राज्य
का विधान,
सिर्फ़
मेरा ही हो हर तरफ वर्चस्व ज़मीं से ले
कर आसमान, हर युग में बदल
जाते हैं इंसानियत के
तजवीज़, कभी
देते हैं धर्म
की दुहाई
और
कभी बांध लेते हैं लोग अपनी बांहों में
नक़ली अमन ताबीज़, हालांकि
सीना रहता है भेदभाव से
ओतप्रोत, उत्सव,
समारोह, युद्ध
- त्रासदी
के मध्य हो कर, बहता जाता है जीवन
स्रोत।
* *
- - शांतनु सान्याल  

    

 

21 फ़रवरी, 2022

किनारे - किनारे - -

बहोत ख़ामोश थे सभी जाने पहचाने
चेहरे, न जाने कहाँ गुम हो गए
रंगीन अक्स सारे, कभी
कहीं वो मिले तो पूछ
लेना ज़िन्दगी
का निचोड़
क्या
था, हर एक क़दम पर सुख दुःख के
नित नए समीकरण देखे, कभी
क्षितिज के ऊपर थे ख़्वाब,
और कभी शून्य में
थे डूबते हुए
सितारे,
बहोत ख़ामोश थे सभी जाने पहचाने
चेहरे, न जाने कहाँ गुम हो गए
रंगीन अक्स सारे । कौन, किस
मोड़ पर मिला और
न जाने किस
अनजान
कूचे
पर खो गया, चाँदनी में थी निखरी -
हुई गुल मोहर की परछाइयां,
कोई किसी का हम सफ़र
नहीं होता फिर भी
दिल फ़रेब हैं
ज़िन्दगी
की
अथाह गहराइयां, कुछ अधूरी सी है
अपनी कहानी, कुछ असमाप्त
से हैं चाहत तुम्हारे, बहोत
ख़ामोश थे सभी जाने
पहचाने चेहरे, न
जाने कहाँ
गुम
हो गए रंगीन अक्स सारे, फिर भी
चल रहे हैं हम जीवन नदी के
किनारे - किनारे - -
* *
- - शांतनु सान्याल
 








10 फ़रवरी, 2022

आरसी का नगर - -

वही लकीर के फ़क़ीर सभी, देह से पृथक है
छाया, साथ साथ गुज़रने का अर्थ नहीं
कि एक ही गंत्वय हो हमारा, सभी
अनुबंध टूट जाते हैं चाहे बांधे
जितना भी नेह डोर, कोई
नहीं किसी का हम -
साया, वही
लकीर
के फ़क़ीर सभी, देह से पृथक है छाया । कोई
नहीं होता ख़ुद के सिवा, जब रूबरू हो
आरसी का शहर, खोजते हैं हम
अपना ठिकाना, बंद हैं सभी
दरवाज़े, रात का है ये
अंतिम प्रहर, यूँ तो
निकले थे हम
कारवां के
संग,
मुड़ कर देखा कई बार, हमारे साथ कोई भी
न आया, वही लकीर के फ़क़ीर सभी,
देह से पृथक है छाया ।
* *
- - शांतनु सान्याल
 






 

05 फ़रवरी, 2022

मिलते जुलते चेहरे - -

पल्लव विहीन हैं पलाश वन फिर
भी, कुछ सिंदूरी स्वप्न कभी
नहीं मरते, ऋतु चक्र की
है अपनी मजबूरी,
उड़ते हैं डायरी
के बेक़रार
पन्ने,
कुछ अंतरतम की गहराई में हैं -
छुपे हुए अनदेखे सपने, देह
का पलस्तर ढह जाए
तो क्या, अंदरूनी
रंग नहीं
झरते,
पल्लव विहीन हैं पलाश वन फिर
भी, कुछ सिंदूरी स्वप्न कभी
नहीं मरते। कोई लैटिनो
ख़्वाब है ज़िन्दगी,
गुज़रती है जो
आधी -
रात
को अमेरिकी मरू सीमांत के - -
समानांतर, एक तरफ
है सघन अंधेरा दूसरी
ओर झिलमिलाता
सा कृत्रिम
सवेरा,
कुछ पल तुम्हारे हैं ज़्यादा, कुछ
क्षण हैं हमारे न के बराबर,
फिर भी किसी एक
बिंदु पर हर
चेहरे हैं
मिलते जुलते, पल्लव विहीन हैं
पलाश वन फिर भी, कुछ
सिंदूरी स्वप्न कभी
नहीं मरते।
* *
- - शांतनु सान्याल
 

27 जनवरी, 2022

सुबह मुबारक - -

जन - अरण्य की थी अपनी अलग ख़ूबसूरती,
हज़ार बार ख़ुद को गुमशुदा पाया, हज़ार
बार ज़िन्दगी से मुलाक़ात हुई, कहाँ
मिलते हैं मनचाहे रास्ते, कहाँ
कोई खड़ा होता है मुंतज़िर
किसी के वास्ते, बड़े
विस्मय से वो
देखता रहा
मुझ को
एक टक, किसी अजनबी की तरह, यूँ तो हर
एक मोड़ पर रुक कर, बारहा उनसे बात
हुई, हज़ार बार ख़ुद को गुमशुदा
पाया, हज़ार बार ज़िन्दगी
से मुलाक़ात हुई। सभी
दर्प उतर जाते हैं
धीरे - धीरे,
दर्पण रह
जाता
है बिम्ब विहीन, दोनों पार्श्व हैं पारदर्शी, फिर
भी वजूद का ठिकाना कहीं नहीं, वो सभी
हैं कल्प - कहानियों में छुपे हुए चेहरे,
जो दिखाते हैं मिथ्या मरुद्यान,
हमारे पांव तले है केवल
पथरीली ज़मीन,
रात तो गुज़र
गई यूँ ही
बियाबां
के राह चलते, सुबह को हो मुबारक अंतिम -
पहर जो बरसात हुई, हज़ार बार ख़ुद को
गुमशुदा पाया, हज़ार बार ज़िन्दगी
से मुलाक़ात हुई - -
* *
- - शांतनु सान्याल
 

 

09 जनवरी, 2022

रतजगा - -

उगते सूरज का था सभी को इंतज़ार,
जो पीछे छूट गए, वो सभी कोहरे
में कहीं खो गए, उनका पता
शायद, दे पाए खोह के
अंधकार, कुछ मृत
स्मृतियों के
जीवाश्म
उभरे
पड़े
थे पिछले पहर, दूर तक जाती है इक
सुनसान सी सड़क, कोई नहीं
जानता, कहाँ, किस मोड़
पर जा कर रुकेगा ये
बोझिल सांसों का
सफ़र, उम्र
भर था
वो
परेशां, देख कर फ़िरौन का कारोबार,  
उगते सूरज का था सभी को
इंतज़ार। न जाने किस
दर पर उस ने दी
थी दुआओं
वाली
दस्तक, हर किसी ने कंपन महसूस
किया था ज़रूर, जिसने दरवाज़ा
खोल कर उसे इक नज़र
देखा, वो तर गया
ज़िन्दगी और
मौत के
दोनों
जहान से, न था वो कोई फ़रिश्ता न
ही देवता किसी उजड़े मंदिर का,
वो समदर्शी अक्स था मेरा
जो उतरा था, आईने
के आसमान से,
जो मध्य
रात
बुलाता रहा मुझे बारम्बार, उगते - -
सूरज का था सभी को
इंतज़ार।
* *
- - शांतनु सान्याल
 

28 दिसंबर, 2021

मंज़िल दर मंज़िल - -

सर ज़मीं ए ख़्वाब दिखा कर,
लोग न जाने कहाँ गए,
मुसलसल बियाबां
के सिवा कुछ
न था हम
जहाँ  
गए, उनका अपना है जो
चश्म ए अंदाज़, कैसे
कोई बदले, संग
ए बुत हो,
या
ख़ुदा का घर, हम सिर्फ़
तनहा गए, कहते हैं
यहाँ कभी था
इक लहराता
हुआ झील
दूर तक,

दरख़्त, न कोई साया, न
जाने किधर वो कारवां
गए, आईना कहता
है मुझसे ऐनक
को ज़रा
बेहतर
पोंछ
लूँ,
कोहरा है घना, राह बता कर
जाने कहाँ वो रहनुमा
गए - -
* *
- - शांतनु सान्याल

  

20 दिसंबर, 2021

अंतहीन यात्रा - -

हमेशा संधि - स्थल नहीं होता अंतिम
बिंदु, कुछ दूर साथ बह कर नदियां
मुड़ जाती हैं भिन्न दिशाओं
में, सूखे हुए तलछट
पर रह जाते हैं
निःशब्द से
कुछ
क़दमों के निशां, दौड़ते हुए से लगते
हैं पेड़ पौधे, खेत खलियान, नदी
पहाड़, फूलों से लदी वादियां,
कुहासे में डूबी हुई अंध
घाटियां, ज़िन्दगी
अपने अंदर
तब होती
है एक
वेगवान सी परिश्रांत नदी, वो रुकना
चाहती है किसी मोड़ पर एक रात
के लिए, लेकिन ज़रूरी नहीं
मिल जाए कोई सराय
सघन अरण्य
राहों में,
हमेशा संधि - स्थल नहीं होता अंतिम
बिंदु, कुछ दूर साथ बह कर नदियां
मुड़ जाती हैं भिन्न दिशाओं
में। मध्य रात के थे वो
सभी मेघ दल, छू
कर गए हैं
शायद  
मेरी
ओंठों के सतह, एक नमी सी है दिल
की गहराइयों तक, फिर सुबह
की है तलाश सर्द चाँदनी
रात के बाद, कुछ
पल सुकून तो
मिले नर्म
धूप
के पनाहों में, हमेशा संधि - स्थल
नहीं होता अंतिम बिंदु, कुछ
दूर साथ बह कर नदियां
मुड़ जाती हैं भिन्न
दिशाओं
में।
* *
- - शांतनु सान्याल
 

18 दिसंबर, 2021

क्षितिज पार के पथिक - -

बूंद बूंद ओस रुकी है कहीं, दिगंत के
नयन कोर, अंगुष्ठ और तर्जनी
के मध्य है कहीं मुहाने की
ज़मीं, देखती है जिसे
मेरी ज़िन्दगी
हो कर
आत्म विभोर, यहां अष्ट प्रहर चलता
रहता है क्रय विक्रय, कदाचित हो
निस्तब्धता तुम्हारी ओर, बूंद
बूंद ओस रुकी है कहीं,
दिगंत के नयन
कोर। सभी
स्रोत हैं
रुके रुके से तुम्हारी भव्यता के आगे,
सभी नदियों का अंत है निश्चित,
सांझ घिरते ही लौट आएंगे
सभी विहग वृन्द, अपने
अपने घर, तुम हो
वहीं अपनी
जगह
स्थिर, समय चक्र अपनी लय पर है
भागे, बिखरे पड़े हैं दूर दूर तक
अतीत के सभी छिन्न -
भिन्न पृष्ठ, क्लांत
रात्रि खड़ी है
अपने
दहलीज़ पर एकाकी, सुदूर धुंध में -
है कहीं कांपता हुआ निरीह
भोर, बूंद बूंद ओस
रुकी है कहीं,
दिगंत के
नयन
कोर।
* *
- - शांतनु सान्याल

15 दिसंबर, 2021

अशेष रात्रि - -

 

मन की अगम गहराई जाने न कोई,
सतह को छू कर बस मुस्कुरा
जाते हैं लोग, जल चक्र
में थे सभी अटके
हुए, मौसम
का यूँ
सहसा रुख़ बदलना पहचाने न कोई,
मन की अगम गहराई जाने न
कोई। कौन डूबे कहां, किस
अंध घाटी के अंदर,
कहना नहीं
आसान,
इसी
पल में है समाहित सारा ब्रह्माण्ड - -
और पलक झपकते ही उस
पार बिखरा हुआ सारा
आसमान, सांस
के साथ ही
उठते
गिरते हैं चाहतों के रंगीन यवनिका,
नेपथ्य के हाथों में है अदृश्य
डोर, परम सत्य को
जान कर भी
उसे माने
न कोई,
मन की अगम गहराई जाने न कोई।
कोहरे के सीढ़ियों से उतरता है
धीरे धीरे आख़री पहर का
चाँद, तुम हो दिल के
क़रीब या रस्म
अदायगी
है ये
ज़िन्दगी, उड़ते हुए मेघ कणों को है
छूने की आस या मरू थल के
सीने में है भटकती हुई
कोई सदियों की
प्यास, किसी
चकमक
पत्थर
से
अपने आप उठती हैं चिंगारियां या
कुछ सुख के पल आज भी हैं
मेरे आसपास, अजीब सी
है ये नज़दीकियां,
दिल के क़रीब
हो कर भी
सभी,
दरअसल अपना माने न कोई, मन
की अगम गहराई
 जाने न
कोई।
* *
- - शांतनु सान्याल

 

08 दिसंबर, 2021

कुछ याद रहा कुछ भूल गए - -

कोई चिड़िया थी, या कोई बल
खाती हुई कटी पतंग, बहुत
दूर किसी टीले से उसने
 समंदर को देखा
होगा,  न
चाह
कर भी ज़िन्दगी यहां बहुत - -
कुछ करा जाती है, दिल
को कोई देखता
नहीं, डूबती
नज़र
को
देखा होगा, उनकी चाहतों
का दरिया मुहाने तक
पहुँचता ही नहीं,
किसी
अनजान पहाड़ी से शाम के
मंज़र को देखा होगा,
परछाइयों के
शहर में
तुम
ढूंढते हो गुमसुदा जिस्म को,
बियाबां रात के सीने पर,
ओस के असर को
देखा होगा,
साहिल
पर
हैं बिखरे हुए अनगिनत
सीपों की कहानियां,
गहरी नींद में
उसने
किसी ख़्वाब ए रहगुज़र को
देखा होगा।
* *
- - शांतनु सान्याल
 

02 दिसंबर, 2021

टूटे हुआ तारों का पता - -

बहुत दीर्घ, नहीं होते जीवन के रास्ते, फिर भी
कोई नहीं करता प्रतीक्षा, बेवजह किसी
के वास्ते, सुदूर उस मोड़ से कहीं
मुड़ गए सभी यादों के साए,
मील का पत्थर रहा
अपनी जगह
यथावत,
उसे
क्या लेना देना, कोई आए या जाए, न जाने क्या
क्या न  लिखता रहा वो उम्र भर, फिर भी
अहसास की डायरी रही अधूरी, उस
एक धुंध भरे पड़ाव में आकर
उसने छोड़ दी आगे की
डगर, ख़त्म कहां
होती है मगर
अंतर्यात्रा,
जिधर
भी देखा घूमते प्रतिबिंबों की सिवा कुछ भी न - -
था, ताउम्र करता रहा अनगिनत हिसाब
किताब, अंत्यमिल में लेकिन प्रश्न
चिन्हों के सिवा कुछ भी न था,
मुश्किल था लौट के
आना हालांकि
अतीत की
आवाज़
आती
रही रुक रुक कर दूर तक, जब टूटा गुमनाम - -
कोई यायावर तारा, एक मौन अट्टहास
बिखरा हुआ था, अंतरिक्ष में दूर
दूर तक - -
* *
- - शांतनु सान्याल

16 नवंबर, 2021

विकल्प की तलाश - -

 

न जाने कितने चेहरे, अपनी ही जगह रह
जाते हैं लौह स्तंभित, और वक़्त की
भीड़ भरी बस, गुज़र जाती है
पलक झपकते ही, हमारे
पास प्रतीक्षा के
अतिरिक्त
कोई
विकल्प नहीं होता, परछाइयां बढ़ कर हो
जाते हैं जब ऊँचे दरख़्त, तब जीवन
खोजता है तंग गलियों में अपने
होने का कोई ठोस सबूत,
उस अनुसंधान में
ज़रूरी नहीं
कि हम
हों
कामयाब, फिर भी खिल उठता है नाज़ुक
ह्रदय बच्चों की तरह, किसी कोने
में खोया हुआ ख़्वाब मिलते
ही, और वक़्त की भीड़
भरी बस, गुज़र
जाती है
पलक
झपकते ही। खोने और पाने का ग्राफ़ - -
अपनी जगह, चढ़ता उतरता रहता
है अनवरत, ज़िन्दगी कभी
थकती नहीं है, कभी
उच्च अक्षांश
पर रहते
हैं हम,
और कभी शून्य रेखा के किनारे रचते हैं
एक महादेश ! कहने को दूर दूर तक
है पसरा हुआ एक अशेष धूसर
मरुभूमि, जब तक सांस
है बाक़ी, वक्षस्थल
की गहराइयों
में ख़त्म
कहां
होती है उम्मीद की नमी, कुछ देर ही
रहता है कुहासे का साम्राज्य,
उजली धूप, हर हाल में
निकल आती है
धुंध के मेघ
छंटते ही,
और
वक़्त की  भीड़ भरी बस, गुज़र जाती है
पलक झपकते ही - -
* *
- - शांतनु सान्याल



15 नवंबर, 2021

इत्मीनान - -

कुछ भी नहीं बदला हमारे दरमियां, वही
कनखियों से देखने की अदा, वही
इशारों की ज़बां, हाथ मिलाने
की गर्मियां, बस दिलों में
वो मिठास न रही,
बिछुड़ कर
दोबारा
मिलने की आस न रही, खिड़कियों के -
उस पार, बहुत दूर हैं नील पर्वतों के
कगार, वादियों में फिर एक
शाम, हमेशा की तरह
सूरज डूबा है
अभी -
अभी, ढूंढता हूँ मैं अक्सर ज़िन्दगी के
अलबम में, अपना खोया हुआ
अस्तित्व, किंतु  अफ़सोस
वो आतशी कांच अब
मेरे पास न रही,
वही इशारों
की ज़बां,
हाथ मिलाने की गर्मियां, बस दिलों में वो
मिठास न रही। इक चाहत है या कोई
तह टूटे बिना लिबास, संदूक के
सिवा कोई नहीं दूसरा
विकल्प उसके
पास, एक
गंध था
या
कोई अनोखा सा अहसास, वक़्त के सभी
नेफ्थलीन, हो चुके विलीन, वो आज
भी है, रूह से गुथा हुआ मेरी
सांसों के आसपास,
इक बूंद क्या
मिली
उस
निगाह ए करम की, ज़िन्दगी में अब कोई
भी प्यास न रही।
* *
- - शांतनु सान्याल 

13 नवंबर, 2021

अहाते का सूखा दरख़्त - -

अब लौटना नहीं आसान, चाहे कोई
कितना भी दे आवाज़, जिस
व्यासार्ध से निकलते
थे कभी रास्ते,
उसी बिंदु
पर  
थम चुकी है ज़िन्दगी, अब वो दौर
भी नहीं कि बंद दरवाज़ों पर
दे कोई दस्तक, हर कोई
अपने ही दायरे में
है सिमटा
हुआ,
एक सरसरी नज़र की तरह हैं सभी
वाबस्तगी, जिस व्यासार्ध से
निकलते थे कभी रास्ते,
उसी बिंदु पर थम
चुकी है
ज़िन्दगी। हर एक चेहरे में होता है
अप्रकाशित कोई न कोई एक
इश्तेहार, बेवजह कोई
नहीं मिलता है
यहां, क्या
अपने
और क्या पराए, वही लेन देन की -
प्राचीन  परम्परा, वही जोड़ -
तोड़ का आदिम बाज़ार,
चाहतों के हैं बहुत
लम्बे से फ़र्द,
कुछ देर
की
है ये दस्त ए गर्मीबाज़ी, फिर हर
एक रिश्ता है बर्फ़ की तरह
पथरीला और सर्द, तब
जलाऊ दरख़्त से
कुछ कम नहीं
होती
अपनी मौजूदगी, जिस व्यासार्ध से
निकलते थे कभी रास्ते,
उसी बिंदु पर थम
चुकी है
ज़िन्दगी।
* *
- - शांतनु सान्याल

 

12 नवंबर, 2021

हमसाया की तरह - -

ज़िन्दगी के अहाते में आज भी उभरती
हैं किसी के मौन शब्दों की छाया,
अप्रेषित पत्रों के तहों में
कहीं आज भी है
मौजूद इक
पुरातन
सी
गंध, कितने बार खिले गुलमोहर और
कितनी बार ही बिखरीं मुरझाई
हुई पंखुड़ियां,  जुगनू की
तरह आज भी हैं
बेकल कुछ
जज़्बात
मेरी
हथेलियों में बंद, जितना भी खोलूं वो
उलझी हुईं रेशमी एहसास, उतना
ही दिल ने मुझे हर पल है
भरमाया, ज़िन्दगी
के अहाते में
आज भी
उभरती
हैं
किसी के मौन शब्दों की छाया। वक़्त
के साथ टूट जाते हैं सभी बंध, एक
निःशब्द दूरत्व बढ़ा जाती  है
नदी की गहराई, तट
भी बदल जाते हैं
रुख़ अपना,  
अतीत
का
स्लेट रह जाता है अपनी जगह ले कर
सीने पर धुंधले हर्फ़, यादें भी हो
जाती हैं एक दिन ढलते
दिन की क्षणिक
पलों की दीर्घ
परछाई,  
फिर
भी
न जाने क्यों साथ कोई चलता है दूर
तक, जैसे ख़ामोश अदृश्य कोई
हमसाया, ज़िन्दगी के
अहाते में आज
भी उभरती
हैं किसी
के
मौन शब्दों की छाया - -
* *
- - शांतनु सान्याल
 

06 नवंबर, 2021

वाष्पित बिम्ब - -

ओस में धुली हुई है निगार ए सहर,
रात के सीने में हैं दफ़्न, कितने
ही अनकहे अफ़साने, कोई
याद नहीं रखता गुज़रे
हुए अंधेरे के गुम
नाम ठिकाने,
ज़रा सा
सांस
ले लूँ फिर ज़िन्दगी करे आगाज़ ए
सफ़र, ओस में धुली हुई है
निगार ए सहर। नेपथ्य
में कहीं छोड़ आया
हूँ मैं अपना
असली
चेहरा,
जो लोग देखना चाहें वो दरअसल है
मायावी बिम्ब मेरा, यूँ भी इस
चकाचौंध की दुनिया में,
झूठ और सच के
तराज़ू पर
पड़ता
नहीं
कोई असर, ओस में धुली हुई है - -
निगार ए सहर।
* *
- - शांतनु सान्याल

04 नवंबर, 2021

दीपावली मंगलमय हो - -

फिर हों बुझे चिराग़ रौशन, ज़िन्दगी
फिर बने दिवाली की रात, कुछ
खो दिया है अंधेरे में कहीं,
बहुत कुछ पा भी लिया
है उजाले के साथ,
दुआओं के लौ
जलते रहें अंतरतम की गहराइयों में अनवरत,
आँधियों का क्या है आते जाते
रहेंगे हमेशा की तरह, बस
इल्तिज़ा है इतनी कि
अपनों का कभी
न छूटे हाथ,
बहुत
कुछ पा भी लिया है उजाले के साथ।
- - शांतनु सान्याल
 

27 अक्टूबर, 2021

सुरमेदानी की तलाश - -

सुबह सरका गया, देह से लिपटे
सारे लिहाफ़, बिखरे हुए हैं
फ़र्श पर कुछ सुरमई
बूंदें, ज़िन्दगी
ढूंढती है
फिर
वही क़ीमती सुरमेदानी, दर्पण
मुस्कुराता है छुपा कर ओंठों
पर इक रहस्मयी गहराई,
इत्र कब से है गुम
हवाओं में, तैरती
है केवल
पलकों
तले
गंध की परछाई, इक नशा है
या कोई ख़ुमार ए तिलिस्म,
खींचे लिए जाए न
जाने कहां, राह
तो लगे है
ज़रा -
ज़रा सा पहचाना, मंज़िल है
मगर अनजानी, बिखरे
हुए हैं फ़र्श पर कुछ
सुरमई बूंदें,
ज़िन्दगी
ढूंढती
है
फिर वही क़ीमती सुरमेदानी।
* *
- - शांतनु सान्याल
   

26 अक्टूबर, 2021

जुलूस का मशाल वाही - -

वो सभी हो चुके हैं किंवदंती जिनका
बखान कर के आज तुम ख़ुद को,
महा मानव कहते हो, जातक
कथाओं में कहीं, तुम
आज भी हो वहीं
पर खड़े, जहाँ
था कभी
छद्म
रुपी सियार, ओढ़े हुए व्याघ्र छाल !
पहलू बदल बदल कर छलते हो,
वो सभी हो चुके हैं किंवदंती
जिनका बखान कर
के आज तुम
ख़ुद को,
महा
मानव कहते हो। दरअसल हर युग -
में कमोबेश इसी तरह से बार
बार बदलता है इतिहास,
भीष्म जोहते हैं
ऋतुओं  
का
परिवर्तन, जीवन खोजता है सिर्फ़
एकांतवास, उंगली काट कर
मीर ए कारवां की तरह
तुम शहीदों में
अपना
नाम
लिखवाने के लिए मचलते हो, वो
सभी हो चुके हैं किंवदंती
जिनका बखान कर
के आज तुम
ख़ुद को,
महा
मानव कहते हो।
* *
- - शांतनु सान्याल     



 
 

18 अक्टूबर, 2021

सुरभित उपहार - -

तटबंध के नीचे होते हैं न जाने कितने ही
गह्वर, काठ का सेतु कब टूट जाए,
नाव को कहाँ रहती है उसकी
ख़बर, फिर भी तुम हाथ
तो बढ़ाओ किनारे
की तरफ, कोई
न कोई तो
ज़रूर
होगा थामनेवाला, बड़ी उम्मीद से तकती
है तुम्हें ज़िन्दगी की रहगुज़र, काठ
का सेतु कब टूट जाए, नाव को
कहाँ रहती है उसकी ख़बर।
उपहार की है अपनी
ही एक नि:स्वार्थ
परिभाषा, जो
बदले में

रखे कोई भी अभिलाषा, अदृश्य सुरभि की
तरह जो बांध जाए, देह प्राण में मर्म
के धागे, वो अंतर्भाव जीवन को
परिपूर्ण कर जाए, कालकूट
की तरह, कंठ में रह
कर हो जाए अपने
आप अमर,
काठ
का सेतु कब टूट जाए, नाव को कहाँ रहती
है उसकी ख़बर।
* *
- -  शांतनु सान्याल

13 अक्टूबर, 2021

जनशून्य मंच - -

बिखरे पड़े हैं पतंग, जन शून्य है दर्शक
वीथी, थम चुके हैं नेपथ्य के सभी
वृंदगान, बुझ चुके हैं रंगीन
चिराग़, थम चुका है
वक्ष स्थल पर
पिघल कर
राग
बिहाग, सभी लेन देन हो चुके पूरे, सभी
नदियां जा मिली अंतिम स्थान, जन
शून्य है दर्शक वीथी, थम चुके हैं
नेपथ्य के सभी वृंदगान।
पथरीली सीढ़ियों
से चाँद भी
उतर
चला है, झील की अथाह गहराइयों में,
हम और तुम जैसे युगों से बैठे हों
यूँ ही रूबरू, ख़ामोश, चाँदनी
की परछाइयों में, रूह को
छू रही है तुम्हारी
संदली सांसें,
ब्रह्माण्ड
का
अस्तित्व यूँ ही बना रहे न रहे, मुझे
यक़ीन है, इन अमर पलों का
कभी न होगा अवसान,
जन शून्य है दर्शक
वीथी, थम चुके
हैं नेपथ्य
के सभी
वृंदगान।
* *
- - शांतनु सान्याल

10 अक्टूबर, 2021

समान्तराल यात्रा - -

किसी एक चन्द्रविहीन रात में, देखा था
उसे जनशून्य रेलवे प्लेटफॉर्म में,
आँखों में लिए शताब्दियों
का अंधकार, मायावी
आकाश के पटल
पर सुदूर
तारे  
खेल रहे थे सांप - सीढ़ी, ज़िन्दगी देख
रही थी, बहुत दूर जा कर पटरियों
का अचानक शून्य में खो
जाना, जिसके बाद
नहीं है कोई भी
पांथ शाला,
जहाँ
नीचे है ऊसर ज़मीं का बिस्तर, और
ऊपर देह से लिपटा हुआ
जराजीर्ण उम्र का
दुशाला, एक
घने कोहरे
में डूबी
हुई
अरण्य घाटियां, दूर दूर तक फैले हुए
है रहस्य के अंबार, आँखों में लिए
शताब्दियों का अंधकार। रात
को गुज़रना है अपनी ही
लय में, अंकों का
हिसाब वक़्त
को नहीं
मालूम,
वो
अविरत बहता जाता है अपनी ही धुन
में अविराम, सुख - दुःख के कांटें
कहाँ होते हैं एक जगह कभी
स्थिर, एक दूजे से वो
टकराते हैं बार -
बार, आँखों
में लिए
शताब्दियों का अंधकार, मृगतृष्णा की
तरह सुबह खड़ा होता है क्षितिज
के उस पार - -
* *
- - शांतनु सान्याल
 

09 अक्टूबर, 2021

रिक्त स्थान की पूर्ति - -

बहुत कुछ कहने के बाद भी, बहुत
कुछ कहने को रहता है बाक़ी,
ये और बात है कि शब्दों
के ख़ाली स्थान भर
जाते हैं दीर्घ -
निःश्वास !
बहुत दूर जाने के बाद भी बहुत -
कुछ अनदेखा रह जाता
है, मुद्दतों एक ही
शहर में रह
कर भी
हम,
देख नहीं पाते अपने ही घर के
आस पास, शब्दों के ख़ाली
स्थान भर जाते हैं दीर्घ -
निःश्वास ! बहुत
क़रीब आने
के बाद
भी
दिलों की मुलाक़ात रहती है - -
अधूरी, सब कुछ छू कर भी
अनछुआ ही रहता
अक्स हमारा,
ख़ुद से
मिलने का हमें मिलता नहीं उम्र
भर इक पल का अवकाश,
शब्दों के ख़ाली स्थान
भर जाते हैं दीर्घ -
निःश्वास !
बहुत
कुछ सोचने के बाद रुक जाते हैं
हम अकस्मात् किसी एक
बिंदु पर, और छोड़
देते है और
अधिक
सोचना, बस उसी क्षण से ज़िन्दगी
ओढ़ लेती है कबीर वाला सन्यास,
शब्दों के ख़ाली स्थान
भर जाते हैं दीर्घ -
निःश्वास !  
* *
- - शांतनु सान्याल  

08 अक्टूबर, 2021

उम्रदराज़ परछाई - -

ढलती दोपहरी में नीम दरख़्त की
परछाई, तपते हुए बरामदे पर,
नाज़ुक सा इक मरहमी
एहसास रख जाए,
अजीब सी है
मुंतज़िर
पलों
की अनुभूति, उड़ चुके हैं सुदूर - -
फूलों की वादियों में, वो सभी
सप्तरंगी तितलियों के
झुण्ड, बंद पलकों
की सतह पर
तैरते हैं
कुछ
स्पर्श की बूंदें, जाते जाते हलकी सी
कोई मुस्कान मेरे ओठों के पास
रख जाए, तपते हुए बरामदे
पर, नाज़ुक सा इक
मरहमी एहसास
रख जाए।
अंतहीन
होती
है
उम्मीद की गहराई, सतह को छू कर
अंदाज़ लगाना है मुश्किल, जो
दिखता है ज़रूरी नहीं वो
असली हो, इस दौर
में क्या पीतल,
क्या सोना,
देख कर
फ़र्क़
बताना है मुश्किल, मूल्यांकन का क्या
है भरोसा, बदल जाए हर एक हाट
बाज़ार के मोड़ पर, अनछुई
सी इक ख़ालिस चमक
कोई  यूँ ही मेरे
पास रख
जाए,  
तपते हुए बरामदे पर, नाज़ुक सा - - -
इक मरहमी एहसास
रख जाए।
* *
- - शांतनु सान्याल

07 अक्टूबर, 2021

निःशब्द अनुभूति - -

मैं आज भी वहीं हूँ खड़ा, जहाँ से निकलती
थी एक धुंधली सी रहगुज़र, न जाने
कितनी बार उजड़ कर बसता
रहा, उस मोड़ के आगे
जो झिलमिलाता
सा है एक
ख़्वाबों
का शहर, तुम आज भी हो वहीं पर खड़े,
जहाँ पर ज़मीन को छूता सा लगे
आसमान, शायद तुम्हारे हाथ
में है कहीं ऋतु चक्र का
बिंदु कांटा ! बिद्ध
कर जाता है
अंधेरे में
भी
स्मृतियों का खंडहर, मैं आज भी वहीं
हूँ खड़ा, जहाँ से निकलती थी एक
धुंधली सी रहगुज़र। कांपते
उंगलियों से पूछते हैं
शब्द, निःशब्द
हो जाने
की
वजह, किस तरह से दिखाएं अपने - -
मौजूदगी का दस्तावेज़, असमय
के तूफ़ां से पूछ लेना यूँ ही
कभी, सब्ज़ पत्तों
के झर जाने
की वजह,
दूर तक
है लहरों का साम्राज्य, द्वीप का कोई
भी नामोनिशां बाक़ी नहीं, न जाने
किस कोण से आया था, किस
ओर चला गया, समय का
वो अनाहूत बवंडर,
मैं आज भी
वहीं हूँ
खड़ा,
जहाँ से निकलती थी एक धुंधली सी - -
रहगुज़र।
* *
- - शांतनु सान्याल

06 अक्टूबर, 2021

सुस्वागतम् - -

कांच के बक्से में हैं बंद कुछ रंगीन हवाई
मिठाई, एक सर्पिल सा कच्चा रास्ता,
सुदूर कांस वन से हो कर खो
जाता है उथली नदी के
किनार, पोखरों में
झांकता सा
लगे है
नीलाकाश, चंडी मंडप में हो रही है फिर -
एक बार लिपाई पुताई, कांच के
बक्से में हैं बंद कुछ रंगीन
हवाई मिठाई। पुष्प -
गंधों की पालकी
में हो सवार
आ रहे
हैं ऋतु शरद सुकुमार, कैलाश से आ रही
हैं उमा अपने ननिहाल, मंगल ध्वनि
संग साजे श्रद्धा के द्वार, हर
तरफ है व्याप्त मन
की अंतहीन
रौशनाई,
कांच
के बक्से में हैं बंद कुछ रंगीन हवाई - -
मिठाई।
* *
- - शांतनु सान्याल

 

02 अक्टूबर, 2021

सिमटती नदी का कगार - -

चाँदनी मोम सी पिघल गई, उठा
गया कोई रात का झिलमिल
शामियाना, हल्का सा
ख़ुमार है बाक़ी,
बहुत निःसंग
सा लगे
डूबता
हुआ शुक्रतारा, अहाते का पेड़ है - -
ख़ामोश, लुटा कर अपना सब
हरसिंगार, कोई दस्तक
दहलीज़ तक आ कर
लौट जाती है
बार बार,
एक
पगडण्डी है, जो दूर तक जाती है न
जाने कहाँ, ढूंढती हुई अनाम
नदी का किनारा, बहुत
निःसंग सा लगे
डूबता हुआ
शुक्रतारा।
इस
गांव से नदी को रूठे हुए एक सदी
हो गई, फिर भी वो आज भी
है शामिल, दंतकथाओं
में कहीं, बरगद
और घाट
छूट
जाते हैं दूर समय के साथ, फिर भी
नदी बहती है हमारे बहुत
अंदर तक हर्ष और
व्यथाओं में कहीं,
काश उसे
स्पर्श
करें, तो उड़ेल दें हम सजल जीवन
सारा,  बहुत निःसंग सा लगे
डूबता हुआ शुक्रतारा।  
* *
- - शांतनु सान्याल
Art - Gangnendranath Tagore

30 सितंबर, 2021

विलुप्त नदी - -

तृण शीर्ष पर कुछ ओस बूंद, देते
हैं आख़री सहारा झरते हुए
पारिजात को, दूरत्व
तो होता है बस
एक बहाना,
हर कोई
चाहता है ज़िन्दगी को नए सिरे से
सजाना, मीठी सी धूप ग़र
पसरी पड़ी हो अहाते
में दूर तक, कौन
याद रखता
है लौटी
हुई
बरसात को, तृण शीर्ष पर कुछ ओस
बूंद, देते हैं आख़री सहारा झरते
हुए पारिजात को। सुदूर
क्षितिज की ओर एक
सूखी सी नदी जा
मिलती है
किसी
अनाम मरु देश में, किनारे पर खड़े हैं
प्रागैतिहासिक पल्लव विहीन
वृक्ष साधुओं के वेश में,
पद चिन्हों के
जीवाश्म
भूल
चुके हैं सदियों पुरानी याद को, तृण
शीर्ष पर कुछ ओस बूंद, देते
हैं आख़री सहारा झरते
हुए पारिजात
को।
* *
- - शांतनु सान्याल

 

28 सितंबर, 2021

आत्म दीपो भवः - - -

अदम्य जिजीविषा हर एक वृत्त से
निकल कर, उन्मुक्त हो कर
हर एक परिधि लांघ
जाती है, उस
केंद्र बिंदु
में रह
जाते हैं सिर्फ अवसाद भरे दिन, इस
अंधकार से मुक्ति दिलाता है
केवल अपना अंतर्मन,
शुष्क नदी पथ पर
होते हैं दूर तक
प्रस्तर खंड,
लेकिन
इन्हीं
के नीचे होते है भूगर्भस्थ जल स्रोत -
नदी सूखने से पूर्व अपने सीने
के अंदर एक झील बांध
जाती है, ज़िन्दगी
उन्मुक्त हो
कर हर
एक
परिधि लांघ जाती है। न जाने कितनी
बार मृत्यु को पुकारा मैंने, न
जाने कितने बार जीवन
ने डूबने से उबारा
मुझ को, हर
एक की
होती
है अपनी अलग अहमियत, सहज पथ
कहीं भी नहीं, दिवा निशि चलता
रहता हैं लेन देन, ये जान
कर भी कि कुछ भी
नहीं रहता है
हमेशा,
फिर
भी लोग चाहते हैं ज़रूरत से अधिक - -
संचय, काश अंदर का दीप जला
पाता, किसे ख़बर पुनर्जन्म
मिले न मिले दोबारा
मुझ को, न जाने
कितने बार
जीवन
ने
डूबने से उबारा मुझ को।  
* *
- - शांतनु सान्याल
 

  

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