अरण्य नदी बह रही है, स्वप्न रेखा के किनारे,
तुम्हारे पलकों तले थम रहे हैं चांदनी के धारे,
निःशब्द देख रही हो, जुगनुओं की झिलमिल,
या दिल की गहराइयों में, उतर चले हैं सितारे,
मंत्रमुग्धता ले चला है, नव रूपांतरण की ओर,
जाने कहाँ जा रहे हैं हम, भूल के व्यथाएँ सारे,
हमक़दम बन के चल रहे हो मम श्वास की तरह,
अगर काठ की चिता जल रही है सम्मुख हमारे,
कोई भी नहीं है, यहाँ अनंतकालीन रहने वाला,
राजा अथवा फ़क़ीर, वक़्त के आगे सभी हैं हारे,
* *
- - शांतनु सान्याल
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