उठे फिर कहीं से सघन बादलों के गरदाब,
ज़िन्दगी चाहती है फिर ऐ तक़दीर
तुझे आज़माना, न रख
मुझे अपने दायरे
में बाँध कर,
चाहता है ज़मीर मेरा, ख़ुद से निकल कर,
तूफ़ान को बहोत क़रीब से पहचानना,
नाख़ुदा न कोई, न ही साहिल
मेहरबां, ज़िन्दगी फिर
भी चाहती है हर
हाल में
मंजिल ए मक़सूद तक पहुंचना, ज़माने -
की अपनी हैं शर्ते, अपनी ही
मजबूरियां, रहने भी
दे, ऐ आसमां
रहनुमाई,
दिल की रौशनी है अभी बाक़ी, है अभी
अधूरा सफ़र तीरगी का, है अभी
बाक़ी, ऐ हमनफ़स तुझे
मुक्कमल तौर से
अपनाना !
ज़िन्दगी चाहती है फिर ऐ तक़दीर
तुझे आज़माना, न रख
मुझे अपने दायरे
में बाँध कर,
चाहता है ज़मीर मेरा, ख़ुद से निकल कर,
तूफ़ान को बहोत क़रीब से पहचानना,
नाख़ुदा न कोई, न ही साहिल
मेहरबां, ज़िन्दगी फिर
भी चाहती है हर
हाल में
मंजिल ए मक़सूद तक पहुंचना, ज़माने -
की अपनी हैं शर्ते, अपनी ही
मजबूरियां, रहने भी
दे, ऐ आसमां
रहनुमाई,
दिल की रौशनी है अभी बाक़ी, है अभी
अधूरा सफ़र तीरगी का, है अभी
बाक़ी, ऐ हमनफ़स तुझे
मुक्कमल तौर से
अपनाना !
* *
नाख़ुदा - माझी
गरदाब - भंवर
alone boat -ART by ROB FRANCO
दहरे- दौरे- दामन में मुझको छुपा रखना..,
जवाब देंहटाएंये रु ये रौ ये रौशनी दिल में जलाय रखना..,
जिंदगी रोजे-क़याम है फुर्सत में हिसाबना..,
सबा के सब्जपा से मुझको बचाए रखना.....
शानदार नज़्म।
जवाब देंहटाएंयह सजा के लिखने में
पढ़ने वाले को दिक्कत होती है
भाव पकड़ने में।
thanks respected friend - regards
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