अपने पराये, जुगनू की तरह थे उनके
चेहरे, कल रात आकाश पथ में,
एकाकी बैठा रहा मन देर
तक स्तंभित, देखता
रहा एकटक शून्य
में जीवन पूर्ण
प्रतिबिंबित,
वो आवाज़ जो कभी पुकारता रहा टूटकर -
वो स्पर्श जो करता रहा उम्र भर
भावविभोर, मन्त्रमुग्द्ध
आलिंगन जो देता
रहा प्राण वायु,
दूर सरकते
कगार
की तरह थे सभी तटभूमि, पहुंच से कहीं दूर,
सुदूर मंदिर कलश में बैठा कोई विहग,
देखता रहा मोह निमज्जन, शेष
प्रहर व नदी घाटी के मध्य
निर्जल मीन सम देह
व्याकुल रहा यूँ
रात भर |
चेहरे, कल रात आकाश पथ में,
एकाकी बैठा रहा मन देर
तक स्तंभित, देखता
रहा एकटक शून्य
में जीवन पूर्ण
प्रतिबिंबित,
वो आवाज़ जो कभी पुकारता रहा टूटकर -
वो स्पर्श जो करता रहा उम्र भर
भावविभोर, मन्त्रमुग्द्ध
आलिंगन जो देता
रहा प्राण वायु,
दूर सरकते
कगार
की तरह थे सभी तटभूमि, पहुंच से कहीं दूर,
सुदूर मंदिर कलश में बैठा कोई विहग,
देखता रहा मोह निमज्जन, शेष
प्रहर व नदी घाटी के मध्य
निर्जल मीन सम देह
व्याकुल रहा यूँ
रात भर |
- - शांतनु सान्याल
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