झिझक कैसी, आईना पूछता है आधी रात
बेलिबास हैं सभी नक़ाबपोश यहाँ
कह भी जाओ अपनी दिल
की बात, इतना भी
घुमावदार नहीं
ज़िन्दगी,
मुश्किल नहीं बयां करना फिर क्यूँ हैं यूँ -
ख़ामोश तुम्हारे जज़्बात, हकीक़त
ओ ख़याल के दरमियां फ़र्क़
अपनी जगह, चेहरा
दर चेहरा छुपे
हैं कई
वजूहात! न ढक यूँ मासूमियत से, हंसी के
कोहरे में दिल की चाहत, कि आँखें
ख़ुद ब ख़ुद बोलती हैं राज़ -
-ए - तिलिस्मात !
* *
- शांतनु सान्याल
झिझक ये कैसी पुछता, आईना आधी रात ।
जवाब देंहटाएंआँखे खुद ही खोलती, हर राज की बात ।।
आपकी इस उत्कृष्ट पोस्ट की चर्चा बुधवार (05-12-12) के चर्चा मंच पर भी है | जरूर पधारें |
सूचनार्थ |
असंख्य धन्यवाद आदरणीय मित्र
जवाब देंहटाएंशांतनु जी, सुंदर रचना ....
जवाब देंहटाएंखुद से मुलाकातें करो
मत व्यर्थ यूँ रातें करो
आइना कहता है आओ,
मुझसे भी बातें करो ||
बहुत बहुत शुक्रिया प्रिय मित्र - नमन सह
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया रचना...
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत शुक्रिया प्रिय मित्र - नमन सह
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जवाब देंहटाएंजी नमस्ते ,
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा आज गुरुवार (११-०५-२०२३) को 'माँ क्या गई के घर से परिंदे चले गए'(अंक- ४६६२) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
सादर
आपका हृदय तल से आभार ।
हटाएंवाह!!!
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुन्दर रचना ।
आपका हृदय तल से आभार ।
हटाएंसुन्दर रचना
जवाब देंहटाएंआपका हृदय तल से आभार ।
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