31 मई, 2023

उनके बग़ैर ये कायनात नहीं होती - -

मुद्दतों से ए दिल ख़ुद से ख़ुद की मुलाक़ात नहीं होती,
मुख़ातिब बैठे रहें वो लेकिन कुछ
 भी बात नहीं  होती,

घिरता है अँधेरा, लरजती हैं यूँ रह रह कर रक़्स ए बर्क़,
उठती हैं लहरें बहोत ऊपर, फिर भी बरसात नहीं होती,

नब्ज़ हाथों में थामें होता है वो लिए अश्क भरी  निगाहें,
सदीद जीने की तमन्ना हो जब ज़िन्दगी साथ नहीं होती,

जी चाहता है के भर दूँ, हथेलियों पे, बेइन्तहां रंग गहरे,
हिना ए जिगर ले के भी पल भर की निजात नहीं होती,

उड़ती हैं शाम ढलते फिज़ाओं में इक अजीब सी ख़ुमारी,
ये और बात है कि हर शब  ख़ूबसूरत  चाँद रात नहीं होती,  

बिखरते हैं कहकशां नीले समंदर में बेतरतीब दूर तलक,
बेमानी सभी फ़लसफ़े बिना उनके ये कायनात नहीं होती |

- - शांतनु सान्याल

30 मई, 2023

बाज़ीगरी - -

तनाब ए दुनियादारी थे बेहद

कमज़ोर दो क़दम ही न
चल पाए कि टूट
गए, अक्स
से बढ़
कर
मेरा गवाह कोई नहीं, चाह
कर भी हम अपना दलील
रख नहीं पाए, आईने
के सिवा दूसरा
दस्तावेज़
पास
नहीं,
मुद्दतों से हूँ सज़ा याफ़्ता,
जीने के अलावा मेरा
गुनाह कोई नहीं,
किसे सुनाएं
फ़रियाद
ए ज़िन्दगी,
वक़्त से
बढ़
कर बेरहम मुन्सिफ़ कोई नहीं,
चाहे हम कहीं भी रह लें,
चार दिनों से बढ़ कर
मुक्कमल पनाह
गाह कोई
नहीं ।
- - शांतनु सान्याल
तनाब - रस्सी बाज़ीगरी के लिए
मुन्सिफ़ - न्यायाधीश

29 मई, 2023

असमाप्त कविता - -

भूमिका विहीन है दिल की किताब,
अलिखित है अब तक अंतिम
कविता, अभी तक सांसों
के पृष्ठ हैं गीले, कुछ
ख़ामोश शब्द
चाहते हैं
नए
अर्थों में ढलना, कुछ बेज़ुबान भावों
को चाहिए उन्मुक्त भाषा, अभी
तक मेरे जज़्बात ने, तुम्हारे
अंतरतम को छुआ ही
नहीं, तुम आज
भी देखती
हो मुझे
बस
निष्पलक, बेजान आँखों से, जैसे - -
ढूंढ रही हो मेरे बहुत अंदर, इक
लुप्तप्राय नदी का उद्गम,
जहाँ पूर्व जन्म का
कोई सूत्र छूट
गया हो
जैसे,
तुम आज भी संतुष्ट नहीं हो इस
भौतिक अनुबंध से, तुम्हारी
चाहत ले जाती है अधूरी
कविताओं को गहन
समुद्र के अतल
में, खोजता
हूँ मैं
वो विरल मोती, जो दे सके तुम्हारे
अभिलाष को राहत, मैं चाहता
हूँ अंतिम कविता पर हो
सिर्फ तुम्हारे अधर
हस्ताक्षर, सम्पूर्ण
प्रणय का महत
अनुदान।
* *
- - शांतनु सान्याल  

रस्म ए ख़ुदा हाफ़िज़ - -

कभी कभी सिफ़रियत बहोत
क़रीब होता है। तमाम
झाड़ फ़ानूस क्यूं
न हों रौशन -
दिल का
कोना फिर भी बेतरतीब
होता है। कभी बिन
मांगे ही मिल
जाए बहुत
कुछ,
कभी इक चाहत पे हो
हज़ार जवाब तलब,
पाने और खोने
के इस
खेल में यक़ीनन सिर्फ़
अपना अपना नसीब
होता है। उनकी
महफ़िल
से हैं
हम बहोत आश्ना,
शमुलियत की
अपनी
अलग है ख़ूबसूरती
लेकिन रस्म ए
ख़ुदा हाफ़िज़
कुछ
अज़ीबो ग़रीब होता है।
न कोई दूर, नहीं
कोई दिल के
क़रीब
होता है इस खेल में
यक़ीनन सिर्फ़
अपना अपना
नसीब
होता है।

* *
- शांतनु सान्याल
अर्थ - 
सिफ़रियत - शून्यता
शमुलियत - शामिल होना



28 मई, 2023

सुलगता अहद - -

न बुझा वो अहद सुलगता जो कभी -
हमने उठाई थी यकजा, रहने 
भी दे भरम कुछ तो मेरी 
सदाक़त का, अभी 
तलक है 
मेरे दिल में मौजूद, मुक़द्दस आतिश, 
रहने भी दे ज़रा कुछ देर यूँ ही 
रौशन यक़ीं ए तहारत 
का, जिस्म की 
है अपनी 
ही मजबूरी, इक दिन तो होगी सुपुर्द 
ए ख़ाक, न कर अलहदा रूह 
ए ला महदूद, रहने भी 
दे उसे ज़िन्दा, 
अपनी 
धड़कनों में, कुछ तो मिले ने'अमत 
उम्र भर की इबादत का,
* * 
- - शांतनु सान्याल 
अर्थ -
तहारत - शुद्धता 
नेअमत - आशीष 
सदाक़त - वफ़ादारी 
 अहद -  शपथ 
अलहदा - अलग 
लामहदूद - अंतहीन 

27 मई, 2023

ज़रूरी नहीं - -


उम्मीद के मुताबिक़, ज़रूरी नहीं
हर रिश्ते का बावफ़ा होना,
कहीं न कहीं इक
हलकी सी
ख़राश
तो लाज़िम है इश्क़ ए आईने में,
उम्र भर की इबादत भी न
थी क़ाबिल ए ऐतमाद,
मुमकिन कहाँ
पत्थरों
का यूँ ख़ुदा होना, उनका तक़ाज़ा
है बहोत जानलेवा, मांगते
हैं सांसों का हिसाब -
किताब, कोई
कैसे
समझाए उन्हें कितना मुश्किल -
है दिल से रूह ए इश्क़ का
जुदा होना, उम्मीद
के मुताबिक़,
ज़रूरी
नहीं हर रिश्ते का बावफ़ा होना -

* *
- शांतनु सान्याल
 

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25 मई, 2023

ज़बान ए दस्तक - -

मुस्तहिक़ आदमी, हासिए में ढूंढता रहा ठिकाना,
बा असर वालों के पास हैं, अनगिनत आशियाना,

ऊंचाइयों से वो शख़्स, बढ़ाता है रफ़ाक़त के हाथ,
उसे ख़बर है उसके बराबर आसां नहीं पहुँच पाना,

दस्तक से ही पता चल जाता है, दिल का मफ़हूम,
वजह अपनी जगह खोजें, कोई मिलने का बहाना,

बेरंग सा है जिस्म का लिफ़ाफ़ा, ख़ुश्बू भी नदारद,
पढ़ना नहीं आसां, तहे दिल का मज़मून अनजाना,

दहलीज़ पे कोई, अल सुबह गुलदस्ता रख जाता है,
ख़्वाबों के सिवा किसी का नहीं है यहाँ आना जाना,
    
मिट्टी का तन है ताहम कर चुका मैं जिस्म - अतिया,
ख़ुशी होती है, किसी और के दिल में हो मेरा तराना,
- - शांतनु सान्याल

मुस्तहिक़ - हक़दार, मज़मून - विषय
रफ़ाक़त - मैत्री, अतिया - दान
 मफ़हूम - आशय                         

24 मई, 2023

दिलकश मंज़र - -


ये भरम कि उनके सिवा कुछ भी नज़र नहीं आया,
उम्र भर चलते रहे दश्त में लेकिन, घर नहीं आया,

सींचते रहे हम दुआओं से क्यारियों को मुसलसल,
गुल खिले शाख़ों में बेशुमार बस, समर नहीं आया, 

अजीब है ये दर्द ए ला इलाज,  यकसां जीना मरना,
लौटने का वादा किया लेकिन लौट कर नहीं आया,

जलते मशाल थक हार बुझ गए सुबह  के इंतज़ार में,
क़ाफ़िला रुका रहा देर तक लेकिन रहबर नहीं आया,

अपने पराए के दरमियां, आगज़नी होती रही हमेशा,
मुस्तक़िल तौर पर  बुझाने वाला मातबर नहीं आया,

ख़्वाबों में कहीं देखा है, हर एक चेहरे पे रूहानी सुकूं,
ताउम्र तलाशा लेकिन वो दिलकश मंज़र नहीं आया,
* *
- - शांतनु सान्याल
   
 

रुका सा सवेरा - -


फिर बह चली हैं, नम
संदली हवाएँ फिर
कहीं उसने
ज़ुल्फ़ है
बिखेरा।
फिर निगाहों में उभरे
हैं अक्स उनके
फिर कहीं
दिल में
चाँदनी का है डेरा। उड़
चले है दूर नाज़ुक
परों की तितलियाँ,
खोजती है मेरी
नज़र फिर
ख़्वाबों का बसेरा। रहने
दे मुझे यूँ ही उनींद
पलों में मुल्लबस, *
क्षितीज के
पार कहीं अभी है रुका  
 सा   सवेरा।

* *
- शांतनु सान्याल 

* खोया हुआ




23 मई, 2023

जीने का सलीक़ा

अब हस्र जो भी हो, अहद तो उठा ली है,
इस रात की है शायद अपनी ही मजबूरी
सुबह तक दिल में तेरी दुनिया बसा ली है,
कल पूछ लेना जीने का सलीक़ा हमसे -
ज़िन्दगी आज तुझको दिल से सजा ली है,
उफ़क़ के पार क्या है, हमें मालूम नहीं
उन आँखों में हमने ख़्वाबों को जगा ली है |
- शांतनु सान्याल

Painting by Asif Kasi 

22 मई, 2023

न रहो यूँ बेहर्फ़ - -

ये ख़ुमार ए नीम शब, यूँ ही गुज़र न जाए कहीं,

न रहो यूँ बेहर्फ़, सहमे सहमे, फ़ासलों में तुम, 
नूर महताब वादियों में यूँ ही ठहर न जाए कहीं,

हम कब से हैं खड़े, अपनी साँसों को थामे हुए -
ये गुलदां ए ज़िन्दगी, यूँ ही बिखर न जाए कहीं, 

बंद पलकों में हैं, रुके रुके से सितारों के साए -
मसमूमियत ए इश्क़, यूँ ही उतर न जाए कहीं, 

ये ख़ुमार ए नीम शब, यूँ ही गुज़र न जाए कहीं,

* * 
- शांतनु सान्याल 

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21 मई, 2023

मोह भंग 🍂

डूबते तारे, बिखरते उल्का पिंड, धूमिल सभी
अपने पराये, जुगनू की तरह थे उनके
चेहरे, कल रात आकाश पथ में,
एकाकी बैठा रहा मन देर
तक स्तंभित, देखता
रहा एकटक शून्य
में जीवन पूर्ण
प्रतिबिंबित,
वो आवाज़ जो कभी पुकारता रहा टूटकर -
वो स्पर्श जो करता रहा उम्र भर
भावविभोर, मन्त्रमुग्द्ध
आलिंगन जो देता
रहा प्राण वायु,
दूर सरकते
कगार
की तरह थे सभी तटभूमि, पहुंच से कहीं दूर,
सुदूर मंदिर कलश में बैठा कोई विहग,
देखता रहा मोह निमज्जन, शेष
प्रहर व नदी घाटी के मध्य
निर्जल मीन सम देह
व्याकुल रहा यूँ
रात 
भर |

- - शांतनु सान्याल
 


20 मई, 2023

रूहानी ख़ुशी - -

याद आई वो बात उनकी रुख़्सत के बाद,
कहना चाहा था जिसे, एक मुद्दत के बाद,

चाहा था उसे हमने अपनी जां से बढ़ कर,
कोई चाह नहीं बाक़ी, इस हसरत के बाद,

बांधा था इक धागा मुहोब्बत के शजर से,
फीके से हैं, सभी सुख इस मन्नत के बाद,

उठ तो आए, उनकी महफ़िल से सोगवार,
कहीं भी बस न पाए, उस हिजरत के बाद,

इक अजीब सा, दिलकश खिंचाव है उसमें,
कहीं जुड़ न पाए, जुनूनी मुहोब्बत के बाद,

ताज ओ तख़्त से भी वो ख़ुशी हासिल नहीं,
सब कुछ है सिफ़र रूहानी मस्सर्रत के बाद,
* *
- - शांतनु सान्याल
 

 

19 मई, 2023

शुक्रगुज़ारी - -

इक याद थी बाक़ी, जिसे यूँ जला के बुझाए,
दर्द ए दिल, कह गए वो भीगी पलक झुकाए,

कभी ताज़ा रू मोती, कभी क़तरा ए शबनम,
उन आँखों ने, इस दिल पे कई ख़्वाब सजाए,

उजड़ कर फिर बस जाएंगी, सभी जीस्तगाहें,
बसती नहीं दिल की दुनिया अगर उजड़ जाए,

दूर तक हैं तन्हाइयां, ओझल है उफ़क़ लकीर,
ख़ुद हैं मुल्ज़िम, जान बूझ कर ही फ़रेब खाए,

शब ए इंतज़ार लगती है कहीं उम्र से भी लंबी,
गोर ए इश्क़ पे कोई, शगुफ़्ता गुलाब रख जाए,
* *
- - शांतनु सान्याल
जीस्तगाहें  - बस्तियां
उफ़क़ - क्षितिज
गोर ए इश्क़ - प्रेम समाधि
शब - रात
शगुफ़्ता - खिला हुआ

18 मई, 2023

अंदर - बाहर का फ़र्क़ - -

जो ज़िंदा है उसे घर नहीं मिलता, कहने को लोग हमदर्दी जताते हैं,
जो दुनिया से जा चुका, उसके लिए हम ख़ूबसूरत मक़बरा बनाते हैं,

किसी को जिस्म छुपाने के लिए, कुछ गज़ कपड़ा भी मय्यसर नहीं,
कुछ लोग संगमर्मर के ऊपर, सोने चांदी से बिने हुए चादर चढ़ाते हैं,

न जाने कितने ही लोगों का हक़ मार कर वो बन गए ताजिर ए शहर,
ख़ुदा के नाम पे मुफ़्त लंगर लगवा कर वो अपनी पशेमानी छुपाते हैं,

चौराहे पर खड़े नाम निहाद दानिशवर, दे रहे हैं अख़लाख़ पे तक़रीर,
घुप्प अंधेरे में, वही कितने ही मासूम ज़िन्दगियों को दांव पे लगाते हैं,
* *
- - शांतनु सान्याल 

17 मई, 2023

ज़ामिन ए निगाह - -

यूँ निगाह मिला के, निगाह चुराया न करो,
रुख़ मोड़ के, हाथ से हाथ मिलाया न करो,

इस बियाबां की आदत सी हो गई मुझ को,
ख़्वाबों की भीड़ में, बेवजह बुलाया न करो,

मजरूह दिल ले कर हर क़दम मुस्कुराते हैं,
बारहा शीशा ए दिल को आज़माया न करो,

ज़माने की तिरछी नज़र है बहोत ही ख़तीर,
बेनक़ाब सर ए आम यूँ आया जाया न करो,

लब ए शमशीर पे चलने का हौसला चाहिए,
अहद ए इश्क़ को, बेहोशी में उठाया न करो,

अनगिनत लब ए तिश्ना, तकते हैं चाँद को,
ज़ुल्फ़ों की घटाएं, यूँ रुख़ पे गिराया न करो,

न जाने कितने आशिक़ पा-ब-जौलाँ निकले,
झुकी नज़र से यूँ ही, ज़ामिन दिलाया न करो,
* *
- - शांतनु सान्याल

पा-ब-जौलाँ - - पैरों में जंजीर लिए  

16 मई, 2023

वाहिद शख़्स - -

हर किसी को चाहिए इक शख़्स जो आइने
की तरह कहे - ज़रा ख़ुद को संवार लो,
ज़िन्दगी का हासिल सिर्फ अपने
तक महदूद नहीं, कोई तो
हो ऐसा साथी जो
मुस्कुरा के
कहे -
कुछ खुशियां मुझ से उधार लो, दहलीज़ के
पार हर किसी को निकलना ही पड़ता
है, फिर भी इक इंतज़ार तो रहे
ज़िंदा किसी के दिल में,
निःशब्द आँखों से
कोई तो कहे -
रात घिरने
से पहले
लौट आना, इस ठिकाने को अपने सीने पर
अच्छे से उतार लो, हर किसी को चाहिए
इक शख़्स जो आइने की तरह कहे -
ज़रा ख़ुद को संवार लो| हर एक
को चाहिए कोई न कोई ऐसा
शख़्स, जो कहे - ज़रा
संभल के रास्ता
पार किया
करो,
कितने बेतरतीब से लोग गाड़ियां चलाया - -
करते हैं, चलते वक़्त सिर्फ़ फुटपाथ का
किनार लो, हर किसी को चाहिए इक
शख़्स जो आइने की तरह कहे -
ज़रा ख़ुद को संवार लो |
* *
- - शांतनु सान्याल

 

15 मई, 2023

नेत्र बिम्ब - -

शिरा उपशिराओं से बह कर वेदना स्रोत, एक दिन
हृत्पिंड को कर देगी पाषाण, तब कदाचित
जीवन हो जाएगा सभी चिंताओं से
मुक्त, उसी एक बिंदु पर कहीं
सुप्त विद्रोह का होता है
उदय, तब भावनाओं
में कहीं जा कर
उभरते हैं
आग्नेय तूफ़ान, उच्च सिंहासन पर हिल जाता है -
बैठा हुआ महा अभियुक्त, तब कदाचित
जीवन हो जाएगा सभी चिंताओं से
मुक्त। विषमता का आलेख
अपने अंदर लिए रहता
है अदृश्य सक्रिय
दहन, जीवन
चाहता है
पाना
विप्लव उपरांत की नीरवता, एक नया सूत्रपात -
अर्थपूर्ण दिनयापन, अभिनव सृजन, हर
एक चेहरे में सजीवता का प्रतिफलन,
मुस्कुराहटों में इक ताज़गी का
एहसास, आँखों की चमक
मणि मुक्ता हो जैसे
गहन जलयुक्त,
तब कदाचित
जीवन हो
जाएगा
सभी चिंताओं से मुक्त।
* *
- - शांतनु सान्याल   

 
 

14 मई, 2023

विदूषक - -

पोषित सभी इच्छाएं कांच के दरवाज़े से टकरा 
कर, दुर्योधन की तरह बन जाते हैं जोकर,
वस्तुतः हम सभी पृथ्वी के पृष्ठों पर
अस्थायी तौर पर लिखे गए नाम
हैं जो समय के संग क्रमशः
मिटा दिए जाएंगे, फिर
भी हम नियति से
हर एक मोड़
पर लेते हैं
टक्कर,
अंततः दुर्योधन की तरह बन जाते हैं जोकर |
निदाघ अहंकार जीवन की उर्वरता को 
करती है नष्ट, विशाल व्यक्तित्व 
बौना होता जाता है, समय का 
दर्पण बिम्ब प्रसारित नहीं
करता, ठूँठ की तरह 
हम बेजान से 
खड़े रहते हैं 
जलाशय 
के मध्य 
एकाकी स्वप्न विहीन, उतरोत्तर बन जाते
हैं अपरिचित सभी के बीच रह कर,
अंततः दुर्योधन की तरह बन 
जाते हैं जोकर |
- - शांतनु सान्याल




अंतहीन तृषा - -

पुरातन मंदिर की हो तुम सांध्य दीप शिखा,
सिहरित समय कंठ में गुंजित कोई
प्रणय गान, भाषा विहीन मधुर
मुखरता, अनंतकालीन कोई
नीरवता, कल्पवृक्ष की
सघन शीतलता,
अदृश्य स्पर्श
में है कोई
जादू
जो कर जाए मुक्त, जीवन की गहन व्यथा,
पुरातन मंदिर की हो तुम सांध्य दीप शिखा।
 
निशीथ पलों की हो तुम उन्मुक्त रजनीगंधा,
संधि बेला में हो तुम सुदूर प्रतिध्वनित
शंख ध्वनि, सीप के अंतःस्थल में
उद्भाषित विरल मणि मुक्ता,
पूर्ण चंद्र की रात में हो
तुम महासागर का
उफान, रात
ढले तुम
हो एक
बिंदु शिशिर सिक्ता, जीवन में जो बढ़ा जाए -
अंतहीन तृषा, अदृश्य आलिंगन से बहे
सुरभित सृष्टि की रूप कथा, निशीथ
पलों की हो तुम उन्मुक्त
रजनीगंधा, पुरातन
मंदिर की हो तुम
सांध्य दीप
शिखा।
* *
- - शांतनु सान्याल
painting -Amit Bhar
 
 

13 मई, 2023

ख़ामोश साहिल - -

उनकी तहक़ीक़ क्या करें जब अपना ही कोई सुराग़ नहीं,
हर कोई दहकना चाहे लेकिन दिलों में अब वो आग नहीं,

इस दौर के नाज़िम पे यक़ीं करना, ख़ुदकुशी से कम नहीं,
ज़मीं ए वादे पे चल के है देखा दूर तक कोई भी बाग़ नहीं,

बाज़ार ए जहान का कारोबार चलता है आमद ओ सूद पे,
लोग चोट पहुंचाते हैं अंदर तक, बस ऊपर कोई दाग़ नहीं,

शहद में डूबी ज़ुबान का असर, रूह तक कर जाए मदहोश,
साहिल बिखरे तमाम रात सुबह हद ए नज़र कोई झाग नहीं,

* *

- - शांतनु सान्याल


12 मई, 2023

एक भीगा स्पर्श

उस सजल नयन के तीर बसे हैं कदाचित
चमकीले बूंदों की बस्तियां, साँझ ढले
ख़ुश्बुओं के जुगनू जैसे उड़ चले
हों दूर अरण्य पथ में, अंत
प्रहर के स्वप्न की
तरह, बहुत ही
नाज़ुक,
कोई प्रणय गीत लिख गया शायद मन -
दर्पण में भोर से पहले, तभी खिल
चले हैं भावना के कुसुम, सूर्य
उगने से पहले, न जाने
कौन छू सा गया
लाजवंती के
पल्लव,
कांपते अधर से गिर चले हैं शिशिर कण,
या उसने छुआ हैं अंतर्मन - -

- शांतनु सान्याल




11 मई, 2023

वामा तरंगिणी - -

 

एक विशाल नदी, जिस से हूँ मैं पूर्व परिचित,
कभी वो मुझ से मिल कर, मुझ में है किंचित,

कभी देखता हूँ, उसकी गहनता में प्रतिच्छवि, 
अंकशायिनी की भांति वो है, मुझ में निश्चित,

उस के गर्भगृह में है सृष्टि का अंकुरण उत्सव,
कभी वो करती है, तटबंध के बंजरों को सिक्त, 

वो जोड़ती है नेह सेतुओं से दोनों विश्रृंखल तट,
उसके एक ही जनम में है कई जीवन समाहित,

कभी श्वेत हिमल चादर के नीचे है उष्ण प्रवाह,
कभी प्रलयंकर रौद्र रूप में वो बहे अप्रत्याशित,

उस वामा तरंगिणी में है रहस्यमयी स्वर्ग नदी,
तट में जिसके करते हैं पापों का हम प्रायश्चित। 
* * 
- - शांतनु सान्याल Painting by Nandlal Bose 

10 मई, 2023

आधी रात - -

झिझक कैसी, आईना पूछता है आधी रात 

बेलिबास हैं सभी नक़ाबपोश यहाँ 
कह भी जाओ अपनी दिल 
की बात, इतना भी 
घुमावदार नहीं 
ज़िन्दगी,
मुश्किल नहीं बयां करना फिर क्यूँ हैं यूँ -
ख़ामोश तुम्हारे जज़्बात, हकीक़त 
ओ ख़याल के दरमियां फ़र्क़ 
अपनी जगह, चेहरा 
दर चेहरा छुपे 
हैं कई 
वजूहात! न ढक यूँ मासूमियत से, हंसी के 
कोहरे में दिल की चाहत, कि आँखें 
ख़ुद ब ख़ुद बोलती हैं राज़ -
-ए - तिलिस्मात !
* * 
- शांतनु सान्याल 


09 मई, 2023

कांच के उपहार - -

समझौता कहें या मजबूरी , शब्दों की है
कारीगरी, वास्तविकता ये है कि
उन दो स्तंभों के मध्य की
दूरी, रस्सियों से थी
पूरी, ज़िन्दगी
ने जिसे तय किया, व्यक्तित्व मेरा क्या -
था , क्या है, कभी समय मिले
तो चेहरे के लकीरों से
पूछ लेना,
प्रतिबिम्ब की अपनी सीमाएं थीं, वो
चौखट पार कर न सका, खुल कर
नग्न हो न सका, यही वजह थी
शायद, कि सोने के दाम वो
बिक न सका, कांच
के पुरस्कार ही
सही, कभी जो हाथ से फिसल पड़े तो टूटने
का दुःख नहीं होगा, जिनके बदन हों
तीरों से बिंधे हुए, बिखरे कीलों
पर  चलने का उन्हें भय
नहीं होता, इधर से गुज़रते हैं कुछ सहमे
सहमे बादलों के साए, कहीं टूट
कर बिखर न जाएं, ये
उनकी अपनी
सोच है,
धूप  व छाँव का बटवारा करें जितना चाहें,
खंडहर से भी उठती हैं साँसें , छूतीं
हैं चाँद की छाया , ग्रहण में
भी खिलती हैं ,भावनाओं की निशि कमलिका,
जीवन प्रवाह रोके नहीं रुकता , ये बात
और है कि हर कोई परिपूर्ण समुद्र
पा नहीं सकता, एक ही
जीवन में अनेक
जीवन
जी
नहीं  सकता, दोबारा हलाहल पी नहीं सकता।

- - शांतनु सान्याल






07 मई, 2023

गुलमोहरी दुनिया - -

ये सोच कर दिल को मिलती है बहोत
तस्कीन, उनकी आँखों में कहीं
आज भी बसती है इक
गुलमोहरी दुनिया,
वो आज
भी हैं माज़ी की तरह, बेइंतहा ख़ूबसूरत
ओ हसीन, यूँ तो वादियों में खिलते
रहे न जाने कितने ही  गुल -
नाशनास, कुछ ख़्वाब -
आलूद कुछ
हक़ीक़ी,
फिर भी कोई न बन सका, उन से बढ़
कर बेहतरीन - -

* *
- शांतनु सान्याल


06 मई, 2023

ख़ुश्बुओं वाला ख़त - -

ज़िन्दगी इक बार ही मिलती है, किसे
मालूम उस पार की दुनिया, शीर्षक
हो सकते हैं मुख़्तलिफ़ लेकिन
बहोत ज़्यादा फ़र्क़ नहीं
होता अफ़सानों में,
सौ फ़ीसद का
सुख है इक
सपना,
फिर
भी ग़र वक़्त मिले कभी मेरी ख़ातिर
एक ख़ुश्बुओं वाला ख़त ज़रूर
लिखना, बहा देना उसे
पहली बारिश में
नन्ही काग़ज़
की नाव
संग,
जब कभी महसूस हो गहरा अकेलापन,
अप्रेषित ख़त का काग़ज़ी विमान
बनाना, उड़ा देना उसे सुदूर
अनदेखे आसमानों में,
शीर्षक हो सकते हैं
मुख़्तलिफ़
लेकिन
बहोत
ज़्यादा फ़र्क़ नहीं होता अफ़सानों में -
राखदानी है रखी हुई अपनी जगह
उड़ चुका धुआं फ़िज़ाओं में,
ख़ुश्बुओं में ढल चुकी
मुहोब्बत, पुरसुकूं
ख़ामोशी है
याद के
ख़्वाबगाहों में, सितारों की महफ़िल उठ
चुकी, कोई भी आश्ना चेहरा नहीं
मौजूद, ख़ालीपन सा बिखरा
हुआ है कहकहों के
ठिकानों में,
शीर्षक
हो सकते हैं मुख़्तलिफ़ लेकिन बहोत - -
ज़्यादा फ़र्क़ नहीं होता
अफ़सानों में ।
* *
- - शांतनु सान्याल

  

ज़ख्म बेक़रां

ये माना कि ज़िन्दगी में हर ख़ुशी नहीं
मिलती, हर्ज़ क्या हैं आख़िर मुस्कराने में,
हासिये में थे हम ये सच है, बावजूद
वक़्त लगता है ज़रा, तूफां गुज़र जाने में,

किसी ने नहीं देखा हवाओं का दम घुटना
भीगी ख़ुश्बू का, बहाना बना गए हम,
छलकते आँखों में थे ख़ामोश ज़ख्म बेक़रां
सिसकतीं साँसों का तराना बना गए हम,

रिश्तों की बारीकियां हमसे न पूछो
टूटतीं हैं साँसें हर बार साहिल से लौट कर,
चाँद की रौशनी हरगिज़ कम न थी
बिखरे हैं दर्द यूँ ही बारहा दिल से लौट कर,
* *
- - शांतनु सान्याल

05 मई, 2023

नुक़्ता ए नज़र - -

लोगों का पैमाना जो भी हो
ज़िन्दगी की सच्चाई
कम नहीं होगी,
हर शख़्स
ज़ेर
पैरहन नग्न होता है ये बात
उन्हें हज़म नहीं
होगी।

हर किसी के आँखों में होता
है एक विशाल रेगिस्तान
की पिपासा, कभी
ख़त्म नहीं
होती,
ज़िन्दगी भर, अधिकाधिक
पाने की आशा।

लिबास से ज़रूरी नहीं कि,
आदमी का ताल्लुक़ है
आला ख़ानदानी,
बाहरी परतों
में है रंग

रोगन अंदर की दीवारें
सिर्फ़ ख़र्च
ज़ुबानी।

चेहरे और मुखौटे के
दरमियान है,
इक हलकी
सी
शिनाख़्ती लकीर, उफनती
लहरें अक्सर फेंक
आती हैं, सभी
बेकार चीज़ें
समंदर
तीर।
* *
- - शांतनु सान्याल

 

04 मई, 2023

अन्तःस्थल में कहीं

हर एक शख़्स के अंदर छुपा होता है
किसी न किसी रूप में ययाति,
अभिलाष की मृगतृष्णा
अधिक बढ़ जाती है
जलते ही सांध्य
बाती,

मसृण पंखों के संग उभर आते हैं -
अगुणित मायावी शलभों के
झुण्ड, मध्य रात के बाद
सदियों की प्यास भी
रहस्यमय रूप में
है गहराती,

मखमली कोशों में बंद होते हैं,
अनगिनत प्रसुप्त स्वप्नों
के अंकुरण, अदृश्य
प्रणयाबद्ध पलों
में खो जाते
हैं, वसुधा
के
सकल प्राणी प्रजाति,

 हर एक -
शख़्स के अंदर छुपा होता
है किसी न किसी
रूप में ययाति।
* *
- - शांतनु सान्याल

03 मई, 2023

अंदाज़ ए ख़ुदा हाफ़िज़ - -

फिर तेरा अंदाज़ ए ख़ुदा हाफ़िज़, फिर 
मेरा क़तरा क़तरा बिखर जाना,
फिर तेरी नज़रों में उस 
मोड़ की रौशनी 
फिर शौक़ 
ए सैलाब का धीरे धीरे उतर जाना, इस 
किनाराकशी में हैं न जाने ख़म 
कितने, कभी डूबता संग 
ए साहिल ये ज़िन्दगी,
कभी तेरी आँखों 
में, मेरे 
अक्स का यूँ ही अचानक उभर आना, - 
इक अजीब सी है कशिश तेरी 
चाहत में ऐ हमनशीं, कभी 
जज़्बा ए क़यामत !
कभी मेरी 
तक़दीर का, तेरी हथेलियों में मेहँदी - -
की तरह संवर जाना, फिर तेरा 
अंदाज़ ए ख़ुदा हाफ़िज़, 
फिर मेरा क़तरा 
क़तरा बिखर 
जाना - - 

* * 
- शांतनु सान्याल 

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Chinese Artists, Abstract Paintings,

02 मई, 2023

स्वप्न रेखा - -

अरण्य नदी बह रही है, स्वप्न रेखा के किनारे,
तुम्हारे पलकों तले थम रहे हैं चांदनी के धारे,

निःशब्द देख रही हो, जुगनुओं की झिलमिल,
या दिल की गहराइयों में, उतर चले हैं सितारे,

मंत्रमुग्धता ले चला है, नव रूपांतरण की ओर,
जाने कहाँ जा रहे हैं हम, भूल के व्यथाएँ सारे,

हमक़दम बन के चल रहे हो मम श्वास की तरह,
अगर काठ की चिता जल रही है सम्मुख हमारे,

कोई भी नहीं है, यहाँ अनंतकालीन रहने वाला,
राजा अथवा फ़क़ीर, वक़्त के आगे सभी हैं हारे,
* *
- - शांतनु सान्याल

नाख़ुदा कोई नहीं - -

उठे फिर कहीं से सघन बादलों के गरदाब,
ज़िन्दगी चाहती है फिर ऐ तक़दीर
तुझे आज़माना, न रख
मुझे अपने दायरे
में बाँध कर,
चाहता है ज़मीर मेरा, ख़ुद से निकल कर,
तूफ़ान को बहोत क़रीब से पहचानना,
नाख़ुदा न कोई, न ही साहिल
मेहरबां, ज़िन्दगी फिर
भी चाहती है हर
हाल में
मंजिल ए मक़सूद तक पहुंचना, ज़माने -
की अपनी हैं शर्ते, अपनी ही
मजबूरियां, रहने भी
दे, ऐ आसमां
रहनुमाई,
दिल की रौशनी है अभी बाक़ी, है अभी
अधूरा सफ़र तीरगी का, है अभी
बाक़ी, ऐ हमनफ़स तुझे
मुक्कमल तौर से
अपनाना !

* * 
- शांतनु सान्याल 
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नाख़ुदा - माझी
गरदाब - भंवर 
alone boat -ART by ROB FRANCO 




01 मई, 2023

सूर्यास्त के पश्चात - -

कहने को सभी दूर से पास होते हैं,
सूर्यास्त के बाद निर्माणाधीन
इमारत के नीचे बहुत
अकेला होता है
मजदूर,
अपने ख़ून पसीने से जो करता है
किसी और का सपना साकार,
गृह प्रवेश के दिन कोई
नहीं रखता उन्हें
याद, ईंटों के
सतह पर
दफ़्न
रह जाते हैं उसके उंगलियों के - -
निशान, चलता रहता है
जन्म जन्मांतर
तक वही
चिर
परिचित सामंतवादी अभियान, राज
पाट बदलते रहते हैं, मजदूर का
बेटा निकल ही नहीं पाता
छेनी हथौड़े से बाहर,
अपने पिता के
वसीयत से
वो होता
है उम्र भर मजबूर, सूर्यास्त के बाद
निर्माणाधीन इमारत के नीचे
बहुत अकेला होता है
मजदूर।
* *
- - शांतनु सान्याल 

अतीत के पृष्ठों से - - Pages from Past