11 मार्च, 2021

अदृश्य सुराख़ - -

न जाने कितनी बार झुलसी
हुई रातें गुज़री, बंजर
ज़मीं से हो कर
बूंदों की
बरसातें गुज़री, इक तिश्नगी
जो रूह को बियाबां करता
रहा, कहने को
आसमां से
तारों
की बारातें गुज़री, ज़ंजीर की
सदा थी वो या सांसों का
गुज़रना, कोई क्या
जाने, हम पर
कैसी
हालातें गुज़री, वक़्त के निशां
हैं, अभी तक उस बूढ़े
पीठ पर, बारहा
उस सीने
के पार
अपनों की घातें गुज़री, बेतरतीब
ज़िन्दगी कभी मुहासिब
न बन सकी, जलसा
ए नूर अक्सर
मुझे, मुंह
चिढ़ाते गुज़री, अदृश्य सुराख़
वाला वजूद कभी नहीं
ठहरता, बेलगाम
दरिया मुझ
से हो
कर इठलाते गुज़री।

* *
- - शांतनु सान्याल
 

 
       
 
















27 टिप्‍पणियां:

  1. कोई क्या
    जाने, हम पर
    कैसी
    हालातें गुज़री, वक़्त के निशां
    हैं, अभी तक उस बूढ़े
    पीठ पर, बारहा
    उस सीने
    के पार
    अपनों की घातें गुज़री..जो अपने पे गुजरती है, सच में कोई नहीं समझ सकता, कितना भी कोई सगा क्यों न हो? सुंदर जज़्बाती सृजन..

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  2. बहुत सुन्दर रचना।
    --
    महाशिवरात्रि की हार्दिक शुभकामनाएँ।

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  3. आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज गुरुवार 11 मार्च 2021 को साझा की गई है......"सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" परआप भी आइएगा....धन्यवाद!

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  4. मार्मिक अभिव्यक्ति, सादर नमन आपको

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  5. हृदयस्पर्शी अभिव्यक्ति शांतनु जी ।

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  6. दिल की गहराइयों से शुक्रिया - - नमन सह।

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  7. मर्मस्पर्शी सृजन अंतस को भेदता।
    सादर

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  8. हृदय स्पर्शी सृजन।
    सुंदर सरस।

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  9. बहुत सुन्दर मन को भीतर तक छूने वाली रचना ।

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