02 फ़रवरी, 2021

ठहरे हुए पल - -

दो चाय की प्यालियां रखी
हैं मेज़ के दो किनारे,
पड़ी सी है बेसुध
कोई मरू
नदी
दरमियां हमारे, तुम्हारे -
ओंठों पे आ कर
रुक जाती हैं
मृगतृष्णा,
पलकों
के आसपास बिखर जाते
हों जैसे सितारे, मैं
ख़लाओं में
तलाशता
हूँ
शब्दों के बिखरे कण, तुम
निःशब्द चले आ
रहे हो मेरी रूह
के किनारे,
बढ़ती
हुई उंगलियों में है कहीं - -
एक हिचकिचाहट,
मुद्दतों के बाद
जी उठे हैं,
सभी
हिमनद के धारे, दूर
वादियों में कहीं,
चिमनी से
उठ रहा
है
धुआं, फिर मैं बढ़ चला
हूँ तुम्हारे सिम्त
ख़्वाब के
सहारे,
कई
शताब्दियों से ठहरा हुआ
हूँ, उसी एक बिंदु पे,
जिस सीप के
सीने पर
दो बूंद
अश्रु
गिरे थे तुम्हारे।

* *
- - शांतनु सान्याल


 


 

24 टिप्‍पणियां:

  1. कई
    शताब्दियों से ठहरा हुआ
    हूँ, उसी एक बिंदु पे,
    जिस सीप के
    सीने पर
    दो बूंद
    अश्रु
    गिरे थे तुम्हारे।

    वाह... बहुत ख़ूब

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  2. दिल की गहराइयों से शुक्रिया - - नमन सह।

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  3. कुछ कहे
    कुछ अनकहे
    अहसासों की
    अनुभूति कराती खूबसूरत कृति..

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  4. कई
    शताब्दियों से ठहरा हुआ
    हूँ, उसी एक बिंदु पे,
    जिस सीप के
    सीने पर
    दो बूंद
    अश्रु
    गिरे थे तुम्हारे।

    बहुत सुंदर रचना....

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  5. बेहतरीन रचना हृदय स्पर्शी भाव

    जवाब देंहटाएं
  6. कई
    शताब्दियों से ठहरा हुआ
    हूँ, उसी एक बिंदु पे,
    जिस सीप के
    सीने पर
    दो बूंद
    अश्रु
    गिरे थे तुम्हारे।
    वाह!

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  7. दिल की गहराइयों से शुक्रिया - - नमन सह।

    जवाब देंहटाएं
  8. शताब्दियों से ठहरा हुआ
    हूँ, उसी एक बिंदु पे,
    जिस सीप के
    सीने पर
    दो बूंद
    अश्रु
    गिरे थे तुम्हारे।
    सुंदर अभिव्यक्ति!--ब्रजेंद्रनाथ

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  9. गज़ब! निशब्द करता लेखन।
    एहसास और संवेदना से सुशोभित।
    साधुवाद।
    दूर बादलों के पार साथ चलता रहा कोई
    साथ चलते कमी हम-कदम की रह गई ।।

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