05 दिसंबर, 2019

झरोखों के उस पार - -

लौट जाओ जुगनुओं के हमराह ऐ दोस्त,
मेरी मंज़िल है कहीं दूर क्षितिज पार,
अभी जो अँधेरा है बाक़ी वो भी
हट जाएगा अपने आप,
फिर मेरी रूह है
बेताब छूने
को
दोनों कगार। मेरे क़दमों से कोई उतारे
सितारों के ज़ंजीर, मेरी आँखों में हैं
बेक़रार सुबह के ताबीर, अभी
तक हैं ज़िंदा मेरे सीने में
दफ़न,जीने की ललक
अपार। वक़्त के
चाबूक टूट
गए
लेकिन,जिस्म अभी तक है मेरा अटूट,-
तुम्हारी चाहत तुम तक महदूद,
मेरी ख़्वाहिश चाहे  खुला
आसमान, खुले दिलों
का एक मुश्त
मीनाबाज़ार।

* *
- शांतनु सान्याल


17 नवंबर, 2019

काश लौट आए - -


मुसलसल ख़ामोशी थी हद ए नज़र तक,
स्टेशन रहा मुन्तज़िर लेकिन नहीं
लौटा मेरा बचपन, न जाने
किस सिम्त मुड़ गई
तमाम पटरियां,
उम्र भर
लेकिन दौड़ता रहा, मेरे रग़ों में इक मीठा
सा कंपन। जब कभी शाम हुई बोझिल,
बहोत याद आए तालाब के छूटते
किनारे, कच्चे  सिंघाड़ों की
उम्र थी मुख़्तसर, शाम
ढलते, नीले थोथों
में डूब गए
सारे।
न जाने क्या बात थी उस सोंधी ख़ुश्बू की,
जो आज तक है ज़िंदा, रूह में हमारे।

* *
- शांतनु सान्याल

painting by Alexandros-Christofias-boy-reading

06 नवंबर, 2019

रात्रिशेष के पथिक - -

जब शून्यता में डूब जाए शहरी कोलाहल,
और निशि पुष्प तलाशें अपना वजूद,
उड़ान सेतुओं की ख़ामोशी जब
कोहरे में हो जाएँ कहीं गुम,
मन विनिमय का खेल,
चलो पुनः खेलें
हम। इस
आख़री
पहर के आगे भी है एक नया दिगंत, जहाँ
कदाचित हो ख़ुश्बुओं का संसार, न
कोई चाहत, न कोई राहत, एक
अनंत नीरवता के मध्य
जहाँ उभरे हमारा
निःस्वार्थ -
प्यार।
जुगनुओं से सजे किनारे पर कहीं है खड़ी -
वो मयूर पंखी नाव, एक स्रोत अविरल
तुम्हारे निगाहों के आरपार, सिर्फ़
बहते है जाना मुहाने की ओर,
न कोई मंदिर, न कोई
मस्जिद, पल भर
भी नहीं अब
ठहराव,
हे, महा रात्रि ! हम तो हैं उजाले के पथिक, -
निरंतर बढ़ें सुबह की ओर, न कोई
पांथशाला, न कोई अचल पड़ाव,
न कोई ठिकाना अपना, न
कोई अन्तर्निहित
अपना गांव।

* *
- शांतनु सान्याल   






 

05 नवंबर, 2019

उड़ते पत्तों के दरमियां कहीं - -

जिस गर्भगृह से हैं आलोकित पृथ्वी और
आकाश, वही अंतरतम करे स्वयं की
तलाश, सारा कुछ उजाड़ कर
जैसे कोई विलुप्त अरण्य,
ठूंठों के मध्य करे
अपनों की
आस।
वो तमाम घरौंदों का कहीं कोई निशान न
रहा, कुछ डूब गए, कुछ डूबा दिए गए,
देशांतरी पक्षियों की तरह मेरा
भी, अब यहाँ कोई जान
पहचान न रहा,
चलो अच्छा
ही हुआ,
तथाकथित आत्मीय स्वजनों का मुझ  पर
अब कोई एहसान न रहा, मैंने भी लौट
कर न देखा खिसकते हुए किनारे
को, मेरे डूबने के बाद वो
भी परेशान न रहा।
 
* *
- शांतनु सान्याल 






04 अक्टूबर, 2019

दोनों किनारे - -

खण्डहरों के बीच खड़ा बूढ़ा मंदिर,
तकता है ख़ामोश, नदी अपना
तट बदलती हैं अहर्निश,
समय की लकीरें
उभरती हैं
चुपचाप। चेहरा हो या प्राचीर, कुछ
भी नहीं चिरस्थायी, झुर्रियों
का भूगोल कर जाता
है खोखला सब
कुछ अपने
आप।
मुहाने पर देर तक खड़ा रहा मैं ले -
कर अँजुरी भर फूल, साँझ ढली
रात हुई, स्वप्न झरे, गंध -
कोष खुले, दोनों किनारे
फिर खिले अरण्य -
बबूल।

* *
- शांतनु सान्याल

 


27 सितंबर, 2019

सुलह कर लिया जाए - -

आसमानी मजलिस थी कोई, उठ गई अपने
आप सुबह से पहले, इक ख़ुमार सा है
बाक़ी दिलो जां में दूर तक, मानों
फिर डूबने की हो ख़्वाहिश,
किनारे के सतह से
पहले। मेरा
वजूद
जो भी हो ज़माने की नज़र में, तुम आज भी
हो पहलू में मेरे, किसी अमरबेल की
तरह, आग का कोई घेरा हो
या मौत का अंधा कुआं,
लगते हो मानों सभी 
इक अदद खेल
की तरह।
कहाँ
हासिल है मनमाफ़िक मुराद, फिर क्यूँ न - 
ज़िन्दगी से यूँ सुलह कर लिया जाए,
निगाहों के दरमियाँ रहे इश्क़ का
वसीयतनामा, फूल मिले या
काँटे, मुस्कुरा कर ख़ाली
दामन क्यों न भर
लिया जाए,
फिर
क्यूँ न ज़िन्दगी से यूँ सुलह कर लिया जाए। 

* *
- शांतनु सान्याल

19 सितंबर, 2019

एक मुठ्ठी उजाला - -

अपने आप निःशब्द खुल जाता है वक़्त
का रफ़ू, अब कोई चाहे, किसी भी
छोर से खींचे, जिस्म मेरा
अब है इक अभ्र का
का ढांचा, चाहे
कोई किसी
भी ओर
से भींचे। यूँ तो सभी ज़ख़्म  के निशान
भर गए अपने आप, नाम मलहम
पे लेकिन तुम्हारा ही रहा,
कौन साथ रहा दूर
तक, और कौन
हाथ छुड़ा
गया,
डूब के जब उभरे तो देखा, सामने केवल
डूबता किनारा ही रहा। तुम क्षितिज
पे मेरा इन्तज़ार करना, मैं  इक
मुठ्ठी उजाला हूँ, रात ढलते
बिखर जाऊँगा, रख
लेना मुझे अपने
पहलू में
कहीं, नियति ने ग़र साथ दिया तो कुछ
और अधिक निखर जाऊँगा।

* *
- शांतनु सान्याल  




18 सितंबर, 2019

ज़रा सी कहासुनी - -

पुराने चश्मे की तरह धुंधलके में कहीं,खो
जाते हैं सभी क़रीबतरीन किनारे,
अँधेरे में सिमटे हुए नाज़ुक
मेरे अहसास खोजते हैं
तब टूटे हुए तारे।
कोहरे में
डूबी
हुई उन वादियों में है शायद कहीं जुगनुओं
की बस्ती, तुम्हारे पलकों के साए में
कहीं ढूंढ़ती है एक मुश्त पनाह,
मेरी मजरूह हस्ती। इक
रात है या मेरी रूहे -
परेशां, अँधेरे
में भी
खोजती हैं तुम्हारे निगाहों की रौशनी, जब
कभी होती है ज़िन्दगी से मुख़्तसर सी
कहासुनी।

* *
- शांतनु सान्याल

11 अगस्त, 2019

डूबते साहिल के दरमियां - -

अभी अभी उतरा है अरण्य नदी का सैलाब,
और छोड़ गया है दूर तक तबाही का
मंज़र, कुछ अधडूबे मकानों के
बीच लहराते हैं टूटे हुए मेरे
ख़्वाब। अभी अभी
दिगंत ने फिर
ली है
अंगड़ाई, उभरते हुए टीले से फिर मैंने देखा
है राहतों का सवेरा, उभरते - डूबते हुए
इन पलों में किनारे छूटते नहीं,
हर हाल में ज़िन्दगी ढूंढ़
ही लेती है कहीं न
कहीं उम्मीद
का डेरा।
अभी अभी तुमने थामा है मेरे काँपते हाथ - -
अब दोबारा डूब भी जाएं तो कोई ग़म
नहीं, माझी की भी हैं  अपनी
अलग मजबूरियां, मेरी
जां से उसकी जां
कुछ कम
नहीं।

* *
- शांतनु सान्याल


 

10 अगस्त, 2019

पारदर्शी वक्षस्थल - -

उन निःस्तब्ध क्षणों में, कुछ अदृश्य
अश्रु कण भी, निश्चित झरे मेरी
आँखों से, आँचल की थी
अपनी ही अलग
परिसीमा,
यूँ तो न जाने कितने पुष्प झरे, उन -
नाज़ुक शाखों से। मेरी चाहतों
का हासिल जो भी हो,
लेकिन, मेरी
प्रीत का
कोई हिसाब नहीं, आँखों की लिपि से
लिखी, उस गहन अनुभूति की
शायद, कोई किताब नहीं।
ईशान कोणीय मेघ
थे या घनीभूत
झंझावर्त,
बरसे लेकिन अपने ही शर्तों पर, यूँ -
तो सारा जिस्म था ज़ंजीरों से
जकड़ा हुआ, फिर भी यूँ
लगा सावनिया बूंदें
गिरें शीशे के
परतों पर।

**
- शांतनु सान्याल   

02 अगस्त, 2019

चतुष्कोण - -

उस चतुष्कोण से निकलना इतना नहीं सरल,
हर एक मिलन बिंदु से निकलते हैं न
जाने कितने प्रतिबिंब, न कोई
बही खाता, न ही कुछ वहाँ
लिपिबद्ध, उस प्रश्न
का मुश्किल है
खोजना
हल, उस चतुष्कोण से निकलना इतना नहीं -
सरल। अनुप्रवाह के सभी सहचर, लेकिन
विपरीत स्रोत में एकाकी जीवन, न
कोई माझी, न कोई प्रकाश -
स्तम्भ, बहता जाए
अस्तित्व मेरा
स्वतः
अविरल, उस चतुष्कोण से निकलना इतना नहीं
सरल। उस पुरातन सत्य के नेपथ्य में नव
पल्लव खोजें नवीन प्राण वायु, यद्यपि
इस मायावी जगत में कोई नहीं
चिरायु, हर एक पग पर हैं
विद्यमान कोई न कोई
प्रतिस्थापन, रिक्त
स्थानों का होता
रहता है यूँ
ही अदल-बदल, उस चतुष्कोण से निकलना इतना
नहीं सरल।

* *
- शांतनु सान्याल

30 जुलाई, 2019

कोई न जाने - -

कब दो किनारे मझधार में आ मिले -
केवल निशीथ के सिवा कोई न
जाने, बिहान भी था विस्मित
देख तरंगों का सर्पिल -
मिलन, धरा और
नभ का विभेद
उस पल
कोई न जाने। अनाहूत वृष्टि की तरह
कोई भिगो गया दूर तक मरू -
प्रांतर, अंतरतम से उठे
उस पल परम -
नाद गहरे,
सुख दुःख, अपने पराये, जन्म मृत्यु,
हिसाब किताब, प्रेम घृणा, सभी
उस पल विस्मृत अवसाद
ठहरे। किस मोड़ से
मुड़ना है किस
राह से
गुज़रना, कब चिता भस्म हो शून्य में
बिखरना, ये रहस्य उसके सिवा
और कोई न जाने। कब दो
किनारे मझधार में आ
मिले, केवल निशीथ
के सिवा कोई न
जाने।

* *
- शांतनु सान्याल 

26 जुलाई, 2019

अज्ञातवास - -

वो शबनमी अनुराग है कोई, या घुमन्तु मेघ,
हाथ बढ़ाते सिर्फ़ दे जाए एक सिक्त
अहसास, मेरी आँखों में फिर
सज चले हैं वादियों से
उतरती नरम
धूप, फिर
तुमने
छुआ है मुझे बेख़ुदी में यूँ लेके गहरी सांस - - !
झील में उतर आया हो जैसे आसमानी
शहर, या फिर तुम्हारे नयन हो
चले हैं छलकते मधुमास।
पहाड़ों की गोद में
फिर जुगनुओं
ने डाला
है डेरा, फिर तुम्हारे स्पर्श से जग उठे हैं सीने
के अनगिनत अज्ञातवास। क्या यही है
इंगित पुनर्जीवन का या फिर कोई
ख़्वाबों का उच्छ्वास। वो
शबनमी अनुराग है
कोई, या घुमन्तु
मेघ, हाथ
बढ़ाते सिर्फ़ दे जाए एक सिक्त अहसास, - - -

* *
- शांतनु सान्याल

25 जुलाई, 2019

आशियाना विहीन - -

गहराइयाँ हैं अंतहीन, कहने को नदी सूख चुकी,
ज़ेर ज़मीं अभी तक है मेरी आँखों की नमी,
यूँ तो जंगल की आग सारा चमन को
फूंक चुकी। न जाने कौन है इस
दौर का रहबर, मुस्कराता
है पुरअसरार निगाहों
से, इतना भी
ग़ुरूर ठीक
नहीं,
न जाने किस सिम्त उठे आतिशफ़िशां इन दर्द
की कराहों से। हम कल भी थे ख़ानाबदोश
हम आज भी हैं रूहे दरबदर, हमारा
ठिकाना कहीं नहीं, तुम्हारी
महफ़िलों का रंग जो
भी हो, रात ढले
उतर जाएगा,
हम हैं
क्षितिज पार के परिंदे हमारा आशियाना कहीं - -
नहीं।

* *
- शांतनु सान्याल

24 जुलाई, 2019

अमरबेल - -

कहाँ से लाएं पहली सी चाहत, उम्र के साथ -
आईना भी लगे है धुंधलाया सा, ये
तक़ाज़ा तुम्हारा, यूँ तो है बहुत
ही ख़ूबसूरत, लेकिन शाम
ढले हर फूल लगे है
मुरझाया सा।
उम्मीद
तुम्हारी यूँ तो चाँद रात से कम नहीं, लेकिन
सुबह के साथ जिस्म ओ जां लगे है
अपना नहीं, पराया सा। सीने
से उठता धुआँ और आँखों
की नमी रहे ओझल,
किसी अदृश्य
संधि के
तहत, ये और बात है कि चेहरा लगे उम्र भर
का सताया सा। न जाने आज भी तुम्हारी
मुस्कराहटों का तिलिस्म, मुझे मरने
नहीं देता, लगे सांसों के इर्द गिर्द
कोई अमरबेल तुम्हारा ही
है लगाया सा। कहाँ
से लाएं पहली
सी चाहत,
उम्र के साथ आईना भी लगे है धुंधलाया सा।

**
- शांतनु सान्याल

10 जुलाई, 2019

अब किसे है चाहत - -

हाशिए से उन्वान का सफ़र नहीं आसां,
हर एक मोड़ पर हैं पेंच बेशुमार,
न थाम सीढ़ियों को इतने
सख़्त हाथों से, अपनों 
ने ही मुझे गिराया
है कई बार।
अब वो
आए हैं पूछने हाले दिल मरीज़ का, जो
जीते जी मर चुका हज़ारों बार। ये
मख़मली पैबंद न भर पाएंगे
मेरे अरमानों को दोबारा,
अब किसे है चाहत,
आए या न आए
फ़सले बहार।
* *
- शांतनु सान्याल


 

10 मई, 2019

मुक्त द्वार - -

कहीं दूर, अदृश्य दिशा में,
साँझ ढले बरसे हैं
मेघ, अतीत
की
परछाइयों से फिर जाग - -
उठे हैं आवेग।
आकाशमुखी
हैं सभी
मुक्त
द्वार, पिंजर एकाकी, - - -
उन्मुक्त जीवन
सभी चाहें, हम,
तुम हों या
पाखी।
तितलियों के संग, उड़ - -
गए सभी स्वप्न
अभिलाष,
मौसम
की
नियति में है बदलना उसे -
कहाँ अवकाश।

* *
- शांतनु सान्याल





 

20 अप्रैल, 2019

आख़िरकार - -

सुबह और शाम के दरमियां बहुत कुछ
बदल ही जाता है, कुछ मुरझाए फूल
गुलदान में झुके रहते हैं और
परिश्रांत सूरज अन्ततः
ढल  ही जाता है।
अब किस से
कहें दिल
की
बात, तन्हाइयों में ये ख़ुद ब ख़ुद बहल
ही जाता है। यूँ तो सारा शहर है
उजाले में डूबा हुआ, फिर भी
अँधेरे का जादू चल ही
जाता है। हमने
लाख चाहा
कि
तुम्हारा इंतज़ार न करें, फिर भी, हर -
एक आहट में, नादां दिल बेवजह
मचल ही जाता है। सुबह और
शाम के दरमियां बहुत
कुछ बदल ही
जाता
है।

* *
- शांतनु सान्याल

11 अप्रैल, 2019

पलातक - -

कब तक यूँ ही फ़रारी का स्वांग रचोगे,
आईने के सामने हर शख़्स है, इक
अदद नंगा सच, चाहे जितना
भी पहन लो रंग गेरुआ,
सिद्धार्थ फिर भी
क्या बन
सकोगे। नियति की ज्यामिति में, क्या
राजा, क्या रंक, हर कोई है बंधा
निमिष मात्र से, अदृश्य -
प्रहार से चाह कर
भी बच न
सकोगे। कुछ बूंद मेरी निगाह के, कुछ 
नूर तेरी चाह के, बहुत कुछ हैं ये
ज़िन्दगी के लिए, चाहतों का
क्या आसमान भी कम
सा लगे है, चार
दिन की है
चांदनी,
उम्र भर इन्हें सहेज कर कहाँ रखोगे। - -
चाहे जितना भी पहन लो रंग
गेरुआ, सिद्धार्थ फिर भी
क्या बन सकोगे।
* *
- शांतनु सान्याल  
 

27 मार्च, 2019

हिय के अंदर - -

कदाचित मरुधरा है हिय के अंदर, अनवरत -
प्यास जगाए, ख़ानाबदोश हो कर भी
मेरी दुनिया, तुम्हीं तक आ कर,
न जाने क्यों रुकना चाहें।
इक अजीब सा मोह
है, तुम्हारे सजल
नयन के
कोर,
अलस दुपहरी में जैसे बरगद की जटाएँ, सूखती
नदी को छूना चाहें। बहोत मुश्किल है, इन
हथेलियों के अंकगणित को समझना,
जो कुछ भी हो हासिल, इस पल
की मेहरबानी है, जो खो
गया, सो खो गया,
हम क्यों न
उसे भूलना
चाहें। ख़ानाबदोश हो कर भी मेरी दुनिया, तुम्हीं
तक आ कर, न जाने क्यों रुकना चाहें। 

* *
- शांतनु सान्याल






25 मार्च, 2019

अंतहीन प्रतीक्षा - -

उम्र से भी कहीं लम्बी है प्रतीक्षा, गली के
आख़री छोर में, कील ठोंकते हाथों को
आज भी है किसी का  इंतज़ार।
कहने को यूँ तो बहुत कुछ
बदल गया मेरे शहर
में, लेकिन अभी
तक है ज़िंदा,
अंधेरों का संसार। क्षितिज में फिर उभरी
हैं उम्मीद की किरण, शायद सुबह
का आलम हो कुछ ज्यादा ही
ख़ुशगवार। ख़्वाब देखते
हुए बूढ़ा जाती हैं
जहाँ जवां -
आँखें, कहाँ रुकता है किसी के लिए ये - -
ज़माने का कारोबार। जीवन स्रोत
को है बहना, हर पल, हर एक
लम्हा, ये और बात है कि
कभी तुम उस पार
और कभी
हम रहें  इस पार।  कहाँ रुकता है किसी के
लिए ये ज़माने का कारोबार।

* *
- शांतनु सान्याल

22 मार्च, 2019

दस्तक से पहले - -

हमेशा की तरह फिर हाथ हैं ख़ाली, अंजुरियों
से जो गुज़र गए उनका अफ़सोस नहीं,
कुछ नेह रंग यूँ घुले मेरी रूह में
कि चाह कर भी अब उनसे
निजात नहीं, न जाने
कितनी बार ओढ़ी
है ख़्वाबों के
पैरहन,
ये ज़िन्दगी फिर भी लगे है इक ख़ूबसूरत - -
उतरन। सूखे पत्तों का वजूद जो भी
हो, मौसम को तो है हर हाल में
बदलना, मेरे घर का पता
तुम्हें याद रहे या न
रहे, हर मोड़ पर
है कहीं न
कहीं
पुरअसरार दहलीज़ ! ऐ दोस्त, दस्तक से पहले
ज़रा संभलना। सूखे पत्तों का वजूद जो
भी हो, मौसम को तो है हर हाल में
बदलना।

* *
- शांतनु सान्याल

19 मार्च, 2019

सुबह का फेरीवाला - -

हाशिए के लोग हमेशा की तरह हैं गुमशुदा,
अपनी अलग दुनिया में, वो आज भी
हैं बंजारे ऊँची इमारतों के नीचे,
न जाने कौन अलसुबह,
फिर ख़्वाबों के
इश्तहार
लगा गया, फिर मासूम मेरा दिल दौड़ चला
है, दिलफ़रेब, चाहतों के पीछे। क़ातिल
है, या मसीहा, ख़ुदा बेहतर जाने,
सुना है कोई जादू है, उसके
लच्छेदार बातों के
पीछे। चलो
फिर
तुम्हारे वादों पे यक़ीन कर लें, ज़िन्दगी को
कुछ पल ही सही आराम मिले, दवा है
या सुस्त ज़हर किसे ख़बर उन
नाम निहाद राहतों के
पीछे। वो आज भी
हैं बंजारे ऊँची
इमारतों के
नीचे।

* *
- शांतनु सान्याल

08 मार्च, 2019

गन्धकोष - -

चाहे जितना भी अंतहीन साम्राज्य हो किसी का,
नियति के आगे असहाय, सभी एक समान,
सभी मुसाफ़िर एक ही पथ के, अज्ञात
भोर की ओर अग्रसर, एक ही
पांथनिवास में रात्रि
अवस्थान।
अनभिज्ञ सभी एक दूजे से, फिर भी अदृश्य नेह -
बंधन, कभी खिले भावनाओं में विरल हास -
परिहास, और कभी जीवन तट पर उठे
अशेष क्रंदन। किसे ख़बर कौन
देखे प्रथम, आख़री पहर
का तारक बिहान,
निशि पुष्पों
की है अपनी अलग मजबूरी, सुबह की आहट के 
साथ, सभी सुरभित कोषों का अवसान।
चाहे जितना भी अंतहीन साम्राज्य
हो किसी का, नियति के आगे
असहाय, सभी एक
समान।

* *
- शांतनु सान्याल

27 फ़रवरी, 2019

एकात्म पलों में कहीं - -

निःस्तब्ध रात्रि, अवाक पृथ्वी, आकाश तब
आलोक मुखर, एकात्म तुम और मैं,
उन पलों में केवल भासमान।
सुन्दर या असुंदर, तिक्त
या मिष्ठ सब कुछ
तब शून्य -
मात्र,
ऊर्ध्वमुखी तब देह प्राण, धूम्रवलय सम
महाप्रस्थान। जब खुलें फूलों के गंध -
कोष, तब खुल जाएँ बंद वातायन
अपने आप, सुरभित अंतर्मन
तब करे मुक्तिस्नान।
वैध अवैध सब
मानव रचना,
सृष्टि की
है अपनी अलग प्राकृत सुंदरता, उन्मुक्त
यहाँ सभी एक समान। 

* *
- शांतनु सान्याल


25 फ़रवरी, 2019

रहस्यमय प्याला - -

शेष पहर जब झर जाएँ निशिपुष्प और
चाँद हो चले मद्धिम तुम पाओगे
उसे दिगंत में कहीं, तुम्हारे
हिस्से का उजाला है
है अपनी जगह
मौजूद।
जीवन स्रोत अविरल बहता जाए, न
आदि, न कोई अंत, निःश्वास के
डोरों से नित नए स्वप्न सजाए,
नियति ही जाने क्या है
उसमें, अंत या
उत्स,लेकिन
ये सच है
तुम्हारे हिस्से का प्याला है अपनी
जगह मौजूद।
* *
- शांतनु सान्याल 

22 फ़रवरी, 2019

मुहाने की ओर - -

कुछ भी रिक्त रहता नहीं वक़्त भर
जाता है हर एक ख़ालीपन,
पतझड़ के पीछे दबे
पांव चलता है
मधुमास,
सुदूर
महुवा वन के बीच, झांकता है - - -
रक्तिम पलाश। संकरी
नदी अपना अस्तित्व
बचाए सागर -
संगम
की आस लगाए, अनवरत महातट
की ओर बहती जाए। क्या
पाया, क्या खोया, अर्थ -
हीन हैं सारे गणित,
बंद मुट्ठी में
मेरे अब
 कुछ
भी नहीं, मायावी जुगनू उड़ गए कब
मुझे उसकी ख़बर नहीं, अब
जीवन लगे बहुत सहज।
* *
- शांतनु सान्याल

21 फ़रवरी, 2019

गहराइयों के ख़ातिर - -

लहरों की नियति में था आख़िर बिखर जाना,
कुछ दूर दिगंत से आए कुछ उठे ख़ामोश
मेरे अधर किनारे, कुछ छलके, कुछ
थम कर रह गए, मेरी आँखों के
अरमान सारे। कभी हम
रहे तुम से बेख़बर,
और कभी
तुम ने
ख़ुद को खुलने न दिया, कुछ अनकही - -
बातों को तुमने चाह कर भी कभी
सुलगने न दिया। कोई शीशी
बंद इत्र के मानिंद था
तुम्हारा प्रणय -
निवेदन,
ह्रदय संदूक में रहा एकाकी, न जाने क्यों
तुमने उसे उन्मुक्त बिखरने न दिया।
शायद गहराई न हो जाए कम,
इसी डर से जीवन तट को
तुमने असमय यूँ ही
सिमटने न
दिया।

* *
- शांतनु सान्याल


 

09 फ़रवरी, 2019

ये शहर कभी आबाद था - -

वो सभी लोग अचानक मूक
ओ बधिर बन गए, भरी
सभा में जब मैंने,
राज़ ए गिरह
खोल दी,
रहनुमाई करने वाले तब पा
ए ज़ंजीर बन गए झूठे
वादों पे हमने हर
पल यूँ जां
निसार
किया,हर बात उनकी आख़िर
ज़हर बुझे तीर बन गए। बंद
आँखों का ईमान हमें
कहीं का न छोड़ा,
अपनों के बीच
देखिये
गुमशुदा तस्वीर बन गए। इश्तहारों
के भीड़ में सच्चा ताबीज़
बेमानी है,खोटे सिक्के
ही शहर में बुलंद
तक़दीर बन
गए।

* *
- शांतनु सान्याल

27 जनवरी, 2019

रौशनी के उस पार - -

रौशनी में डूबा हुआ सारा शहर -
लगता है बेहद ख़ूबसूरत,
उड़ान पुल हो, या
आकाश पथ
से झाँकते
मग़रूर निगाहें, काश देख पाते,
अंधकार में विलीन कुछ
जीवन की राहें। डरा -
डरा सा संकरी
गलियों से
गुज़रता वो कोई ख़्वाब नहीं, मेरा
हमसाया,जो चीखता है ख़ामोश,
फैलाए अपनी बाँहें। वो सभी
मायावी मोड़ अक्सर
निकलते हैं इसी
राजपथ से,
अय्यारों
से बचना है बहोत मुश्किल, आप
चाहें या न चाहें। हर एक मुखौटे
के पीछे, न जाने कितने,
चेहरे हैं छुपे हुए,
गोल तख़्ती
पे घूमता हुआ मेरा वजूद, खंजर
उनके हाथ, वही हाक़िम, वही
सरबराह क़ौम, जी चाहे
जो भी कर
जाएं। 

* *
- शांतनु सान्याल 






 

26 जनवरी, 2019

राज़ ए तलाश - -

आईना भी वही, अक्स भी वही,
फिर हैरानगी कैसी, वो कोई
गुमशुदा ख़्वाब है, या
ढलती धूप की
तपन,
अहाता भी वही, घर भी वही, -
फिर आवारगी कैसी।
ताउम्र का
अहदनामा शायद अब तुम्हारे
पास नहीं, रास्ता वही,
ठिकाना भी वही,
फिर
नाराज़गी कैसी। अक्सर मैं, -
ख़ुद से सवाल करता हूँ
लाजवाब हो कर,
जो वजूद
में नहीं,
उसके लिए फिर दीवानगी कैसी।

* *
- शांतनु सान्याल
 

23 जनवरी, 2019

प्रथम स्पर्श - -


वो कच्ची उम्र की छुअन या निस्तब्ध पलों
में पीपल पात का हिलना, एक मख़मली
एहसास के साथ तुम्हारा वो बेबाक
हो के मिलना । काश लौट आएं
फिर वही सुबह शाम, मुन्तज़िर
निगाहों से हर पल मीठी
आग में सुलगना ।
वो कशिश
जो जीने की चाहत बढ़ा जाए, वो अंदाज़ ए
निगाह, जो ख़ुश्बू ए जज़्बात बढ़ा जाए,
दबे क़दमों से जैसे मौसम ए बहार,
उजड़ा शहर दोबारा, फूलों से
यूँ सजा जाए।
* *
- - शांतनु सान्याल
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17 जनवरी, 2019

सुबह से पहले - -

हर एक अट्टहास के बाद, कुछ देर ज़रूर
ख़ामोशी करती है राज, और इसी
दौरान पैदा होते हैं अकल्पित
इन्क़लाब। धर्म - अधर्म
की दुहाई देने वाले
अचानक जब
साध जाएं
भीष्म -
नीरवता, समझ लीजिये भविष्य का - 
अप्रत्याशित जवाब। दहशत में था
अचानक सारा शाही परिवार,
देख सामने एक जुट
जंगली भैसों का
भावी संहार,
सुप्त -
प्रलय की अपनी ही है, एक असामान्य
प्रवृत्ति, कब, और कैसे, कर जाए
विध्वस्त, पृथ्वी और आकाश
हो जाएं पल में आख़री
पहर के टूटे
ख़्वाब।

* *
- शांतनु सान्याल

02 जनवरी, 2019

इस पल के बाद - -

उस अनंत अनुबंध के तहत हैं सभी अंगभूत,
न कोई कम, न कोई अधिक, बीज और
धरा के मध्य हैं सिमटे सभी जीवन,
वो आजतक निकल न पाए
गर्भगृह के तम से बाहर, 
न जाने किस देवता
के हैं वो दम्भी
अग्रदूत।
उस अनंत अनुबंध के तहत हैं सभी अंगभूत।
प्रकृति और पुरुष के मुहाने पर लहराए
महासिंधु अपार, कदाचित उस
दिव्य दिगंत में उभरे जग
के खेवनहार, न तुम,
तुम हो, न मैं,
मैं हूँ,
जो कुछ भी है बस इसी पल में सिमित, इस
पल के बाद है जगत मिथ्या हे मम् अवधूत।
उस अनंत अनुबंध के तहत हैं
सभी अंगभूत।
* *
- शांतनु सान्याल 

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