पुराने चश्मे की तरह धुंधलके में कहीं,खो
जाते हैं सभी क़रीबतरीन किनारे,
अँधेरे में सिमटे हुए नाज़ुक
मेरे अहसास खोजते हैं
तब टूटे हुए तारे।
कोहरे में
डूबी
हुई उन वादियों में है शायद कहीं जुगनुओं
की बस्ती, तुम्हारे पलकों के साए में
कहीं ढूंढ़ती है एक मुश्त पनाह,
मेरी मजरूह हस्ती। इक
रात है या मेरी रूहे -
परेशां, अँधेरे
में भी
खोजती हैं तुम्हारे निगाहों की रौशनी, जब
कभी होती है ज़िन्दगी से मुख़्तसर सी
कहासुनी।
* *
- शांतनु सान्याल
जाते हैं सभी क़रीबतरीन किनारे,
अँधेरे में सिमटे हुए नाज़ुक
मेरे अहसास खोजते हैं
तब टूटे हुए तारे।
कोहरे में
डूबी
हुई उन वादियों में है शायद कहीं जुगनुओं
की बस्ती, तुम्हारे पलकों के साए में
कहीं ढूंढ़ती है एक मुश्त पनाह,
मेरी मजरूह हस्ती। इक
रात है या मेरी रूहे -
परेशां, अँधेरे
में भी
खोजती हैं तुम्हारे निगाहों की रौशनी, जब
कभी होती है ज़िन्दगी से मुख़्तसर सी
कहासुनी।
* *
- शांतनु सान्याल
जवाब देंहटाएंजी नमस्ते,
आपकी लिखी रचना गुरुवार १९ सितंबर २०१९ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं...धन्यवाद।
बेहतरीन प्रस्तुति,उम्दा भाव।
जवाब देंहटाएंकरीबी का साया मिल जाये तो चैन की सांस मिल जाती है। उम्दा रचना।
जवाब देंहटाएंपधारें अंदाजे-बयाँ कोई और