अपने आप निःशब्द खुल जाता है वक़्त
का रफ़ू, अब कोई चाहे, किसी भी
छोर से खींचे, जिस्म मेरा
अब है इक अभ्र का
का ढांचा, चाहे
कोई किसी
भी ओर
से भींचे। यूँ तो सभी ज़ख़्म के निशान
भर गए अपने आप, नाम मलहम
पे लेकिन तुम्हारा ही रहा,
कौन साथ रहा दूर
तक, और कौन
हाथ छुड़ा
गया,
डूब के जब उभरे तो देखा, सामने केवल
डूबता किनारा ही रहा। तुम क्षितिज
पे मेरा इन्तज़ार करना, मैं इक
मुठ्ठी उजाला हूँ, रात ढलते
बिखर जाऊँगा, रख
लेना मुझे अपने
पहलू में
कहीं, नियति ने ग़र साथ दिया तो कुछ
और अधिक निखर जाऊँगा।
* *
- शांतनु सान्याल
का रफ़ू, अब कोई चाहे, किसी भी
छोर से खींचे, जिस्म मेरा
अब है इक अभ्र का
का ढांचा, चाहे
कोई किसी
भी ओर
से भींचे। यूँ तो सभी ज़ख़्म के निशान
भर गए अपने आप, नाम मलहम
पे लेकिन तुम्हारा ही रहा,
कौन साथ रहा दूर
तक, और कौन
हाथ छुड़ा
गया,
डूब के जब उभरे तो देखा, सामने केवल
डूबता किनारा ही रहा। तुम क्षितिज
पे मेरा इन्तज़ार करना, मैं इक
मुठ्ठी उजाला हूँ, रात ढलते
बिखर जाऊँगा, रख
लेना मुझे अपने
पहलू में
कहीं, नियति ने ग़र साथ दिया तो कुछ
और अधिक निखर जाऊँगा।
* *
- शांतनु सान्याल
दम दिया है बुद्धि के सहारे चला करोगे
जवाब देंहटाएंजोत के बीज खेती के सहारे चला करोगे
मैंने बनाया एक पुरजोर पुतला इन्सा
तो भी तुम नियति के सहारे चला करोगे?
शानदार
पधारें- अंदाजे-बयाँ कोई और
असंख्य धन्यवाद आदरणीय मित्र - - नमन सह।
हटाएंलाजवाब! बिल्कुल अलग अंदाज।।
जवाब देंहटाएंवाह्ह्ह
असंख्य धन्यवाद आदरणीय मित्र - - नमन सह।
हटाएंनिःशब्द खोलती रचना ।
जवाब देंहटाएंअसंख्य धन्यवाद आदरणीय मित्र - - नमन सह।
हटाएंजी नमस्ते,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (21-09-2019) को " इक मुठ्ठी उजाला "(चर्चा अंक- 3465) पर भी होगी।
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
आप भी सादर आमंत्रित है
….
अनीता सैनी
असंख्य धन्यवाद आदरणीय मित्र - - नमन सह।
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