खण्डहरों के बीच खड़ा बूढ़ा मंदिर,
तकता है ख़ामोश, नदी अपना
तट बदलती हैं अहर्निश,
समय की लकीरें
उभरती हैं
चुपचाप। चेहरा हो या प्राचीर, कुछ
भी नहीं चिरस्थायी, झुर्रियों
का भूगोल कर जाता
है खोखला सब
कुछ अपने
आप।
मुहाने पर देर तक खड़ा रहा मैं ले -
कर अँजुरी भर फूल, साँझ ढली
रात हुई, स्वप्न झरे, गंध -
कोष खुले, दोनों किनारे
फिर खिले अरण्य -
बबूल।
* *
- शांतनु सान्याल
तकता है ख़ामोश, नदी अपना
तट बदलती हैं अहर्निश,
समय की लकीरें
उभरती हैं
चुपचाप। चेहरा हो या प्राचीर, कुछ
भी नहीं चिरस्थायी, झुर्रियों
का भूगोल कर जाता
है खोखला सब
कुछ अपने
आप।
मुहाने पर देर तक खड़ा रहा मैं ले -
कर अँजुरी भर फूल, साँझ ढली
रात हुई, स्वप्न झरे, गंध -
कोष खुले, दोनों किनारे
फिर खिले अरण्य -
बबूल।
* *
- शांतनु सान्याल
असंख्य धन्यवाद आदरणीय मित्र - - नमन सह।
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