05 नवंबर, 2019

उड़ते पत्तों के दरमियां कहीं - -

जिस गर्भगृह से हैं आलोकित पृथ्वी और
आकाश, वही अंतरतम करे स्वयं की
तलाश, सारा कुछ उजाड़ कर
जैसे कोई विलुप्त अरण्य,
ठूंठों के मध्य करे
अपनों की
आस।
वो तमाम घरौंदों का कहीं कोई निशान न
रहा, कुछ डूब गए, कुछ डूबा दिए गए,
देशांतरी पक्षियों की तरह मेरा
भी, अब यहाँ कोई जान
पहचान न रहा,
चलो अच्छा
ही हुआ,
तथाकथित आत्मीय स्वजनों का मुझ  पर
अब कोई एहसान न रहा, मैंने भी लौट
कर न देखा खिसकते हुए किनारे
को, मेरे डूबने के बाद वो
भी परेशान न रहा।
 
* *
- शांतनु सान्याल 






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