17 नवंबर, 2019

काश लौट आए - -


मुसलसल ख़ामोशी थी हद ए नज़र तक,
स्टेशन रहा मुन्तज़िर लेकिन नहीं
लौटा मेरा बचपन, न जाने
किस सिम्त मुड़ गई
तमाम पटरियां,
उम्र भर
लेकिन दौड़ता रहा, मेरे रग़ों में इक मीठा
सा कंपन। जब कभी शाम हुई बोझिल,
बहोत याद आए तालाब के छूटते
किनारे, कच्चे  सिंघाड़ों की
उम्र थी मुख़्तसर, शाम
ढलते, नीले थोथों
में डूब गए
सारे।
न जाने क्या बात थी उस सोंधी ख़ुश्बू की,
जो आज तक है ज़िंदा, रूह में हमारे।

* *
- शांतनु सान्याल

painting by Alexandros-Christofias-boy-reading

2 टिप्‍पणियां:

  1. जी नमस्ते,
    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (१९ -११ -२०१९ ) को "फूटनीति का रंग" (चर्चा अंक-३५२४) पर भी होगी।

    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    आप भी सादर आमंत्रित है
    ….

    अनीता सैनी

    जवाब देंहटाएं
  2. असंख्य धन्यवाद आदरणीय मित्र - - नमन सह।

    जवाब देंहटाएं

अतीत के पृष्ठों से - - Pages from Past