06 नवंबर, 2019

रात्रिशेष के पथिक - -

जब शून्यता में डूब जाए शहरी कोलाहल,
और निशि पुष्प तलाशें अपना वजूद,
उड़ान सेतुओं की ख़ामोशी जब
कोहरे में हो जाएँ कहीं गुम,
मन विनिमय का खेल,
चलो पुनः खेलें
हम। इस
आख़री
पहर के आगे भी है एक नया दिगंत, जहाँ
कदाचित हो ख़ुश्बुओं का संसार, न
कोई चाहत, न कोई राहत, एक
अनंत नीरवता के मध्य
जहाँ उभरे हमारा
निःस्वार्थ -
प्यार।
जुगनुओं से सजे किनारे पर कहीं है खड़ी -
वो मयूर पंखी नाव, एक स्रोत अविरल
तुम्हारे निगाहों के आरपार, सिर्फ़
बहते है जाना मुहाने की ओर,
न कोई मंदिर, न कोई
मस्जिद, पल भर
भी नहीं अब
ठहराव,
हे, महा रात्रि ! हम तो हैं उजाले के पथिक, -
निरंतर बढ़ें सुबह की ओर, न कोई
पांथशाला, न कोई अचल पड़ाव,
न कोई ठिकाना अपना, न
कोई अन्तर्निहित
अपना गांव।

* *
- शांतनु सान्याल   






 

2 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज बुधवार 06 नवम्बर 2019 को साझा की गई है......... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

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  2. असंख्य धन्यवाद आदरणीय मित्र - - नमन सह।

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