लौट जाओ जुगनुओं के हमराह ऐ दोस्त,
मेरी मंज़िल है कहीं दूर क्षितिज पार,
अभी जो अँधेरा है बाक़ी वो भी
हट जाएगा अपने आप,
फिर मेरी रूह है
बेताब छूने
को
दोनों कगार। मेरे क़दमों से कोई उतारे
सितारों के ज़ंजीर, मेरी आँखों में हैं
बेक़रार सुबह के ताबीर, अभी
तक हैं ज़िंदा मेरे सीने में
दफ़न,जीने की ललक
अपार। वक़्त के
चाबूक टूट
गए
लेकिन,जिस्म अभी तक है मेरा अटूट,-
तुम्हारी चाहत तुम तक महदूद,
मेरी ख़्वाहिश चाहे खुला
आसमान, खुले दिलों
का एक मुश्त
मीनाबाज़ार।
* *
- शांतनु सान्याल
मेरी मंज़िल है कहीं दूर क्षितिज पार,
अभी जो अँधेरा है बाक़ी वो भी
हट जाएगा अपने आप,
फिर मेरी रूह है
बेताब छूने
को
दोनों कगार। मेरे क़दमों से कोई उतारे
सितारों के ज़ंजीर, मेरी आँखों में हैं
बेक़रार सुबह के ताबीर, अभी
तक हैं ज़िंदा मेरे सीने में
दफ़न,जीने की ललक
अपार। वक़्त के
चाबूक टूट
गए
लेकिन,जिस्म अभी तक है मेरा अटूट,-
तुम्हारी चाहत तुम तक महदूद,
मेरी ख़्वाहिश चाहे खुला
आसमान, खुले दिलों
का एक मुश्त
मीनाबाज़ार।
* *
- शांतनु सान्याल
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (05-12-2019) को "पत्थर रहा तराश" (चर्चा अंक-3541) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
असंख्य धन्यवाद आदरणीय मित्र - - नमन सह।
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