05 जनवरी, 2020

यथावत रिक्त - -

महासमुद्र है प्रतीक्षारत अपनी जगह अटल, -
दीर्घ जीवन की यात्रा हो या नदी कोई
विश्रृंखल, विसर्जन है निश्चित,
न जाने कौन रह रह कर,
देता है दस्तक मेरे 
अंतःकरण के
कपाट पर,
किसे
ख़बर की वो है अजनबी या मेरा चिर परिचित।
कोई स्मृति गुच्छ है या अनौपचारिक फूल
उसके हाथ, दहलीज़ और अंतःगृह के
मध्य रहा यूँ तो लुकछुप का साथ,
फिर भी जी चाहता खुली
सांस लूँ हो उन्मुक्त -
चित्त, न तुम
हो कोई
परिपूर्ण यामिनी, न मैं ही हूँ कोई अनंत गंध,
तुम्हारा आँचल भी है अधूरा, मेरा देह -
पिंजर भी रहा यथावत रिक्त।

* *
- शांतनु सान्याल



  

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