न जाने कितने लम्हों ने देखा
है हमें बहोत क़रीब से,
कभी मुस्कुराहटों
के बेलबूटे और
कभी रफ़ू से
झाँकती
ज़िन्दगी की रुमाल, अब नहीं
पूछता आईना भी हमारा
हालचाल । दालान की
धूप भी अब नहीं
मय्यसर, हर
जानिब
हैं कंक्रीट के जंगल, न कोई
शिकायत किसी से न
खोने पाने का
मलाल,
इक तुम्हारी निगाह के अलावा
हमारा ठिकाना कोई नहीं,
कल की कल सोचेंगे
आज तुमसे हैं
मुख़ातिब
हम बहरहाल - -
- - शांतनु सान्याल
है हमें बहोत क़रीब से,
कभी मुस्कुराहटों
के बेलबूटे और
कभी रफ़ू से
झाँकती
ज़िन्दगी की रुमाल, अब नहीं
पूछता आईना भी हमारा
हालचाल । दालान की
धूप भी अब नहीं
मय्यसर, हर
जानिब
हैं कंक्रीट के जंगल, न कोई
शिकायत किसी से न
खोने पाने का
मलाल,
इक तुम्हारी निगाह के अलावा
हमारा ठिकाना कोई नहीं,
कल की कल सोचेंगे
आज तुमसे हैं
मुख़ातिब
हम बहरहाल - -
- - शांतनु सान्याल
आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज शुक्रवार 31 जनवरी 2020 को साझा की गई है...... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंअसंख्य धन्यवाद आदरणीय मित्र - - नमन सह।
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