10 मई, 2019

मुक्त द्वार - -

कहीं दूर, अदृश्य दिशा में,
साँझ ढले बरसे हैं
मेघ, अतीत
की
परछाइयों से फिर जाग - -
उठे हैं आवेग।
आकाशमुखी
हैं सभी
मुक्त
द्वार, पिंजर एकाकी, - - -
उन्मुक्त जीवन
सभी चाहें, हम,
तुम हों या
पाखी।
तितलियों के संग, उड़ - -
गए सभी स्वप्न
अभिलाष,
मौसम
की
नियति में है बदलना उसे -
कहाँ अवकाश।

* *
- शांतनु सान्याल





 

14 टिप्‍पणियां:


  1. जी नमस्ते,

    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (12-05-2019) को

    "मातृ दिवस"(चर्चा अंक- 3333)
    पर भी होगी।

    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    ....
    अनीता सैनी

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  2. बहुत खूब ..सादर नमस्कार

    जवाब देंहटाएं
  3. वाह बहुत शानदार।
    सार्थक सृजन आदरणीय।

    जवाब देंहटाएं
  4. आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द में" मंगलवार जून 04, 2019 को साझा की गई है......... पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

    जवाब देंहटाएं

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