कुछ भी रिक्त रहता नहीं वक़्त भर
जाता है हर एक ख़ालीपन,
पतझड़ के पीछे दबे
पांव चलता है
मधुमास,
सुदूर
महुवा वन के बीच, झांकता है - - -
रक्तिम पलाश। संकरी
नदी अपना अस्तित्व
बचाए सागर -
संगम
की आस लगाए, अनवरत महातट
की ओर बहती जाए। क्या
पाया, क्या खोया, अर्थ -
हीन हैं सारे गणित,
बंद मुट्ठी में
मेरे अब
कुछ
भी नहीं, मायावी जुगनू उड़ गए कब
मुझे उसकी ख़बर नहीं, अब
जीवन लगे बहुत सहज।
* *
- शांतनु सान्याल
जाता है हर एक ख़ालीपन,
पतझड़ के पीछे दबे
पांव चलता है
मधुमास,
सुदूर
महुवा वन के बीच, झांकता है - - -
रक्तिम पलाश। संकरी
नदी अपना अस्तित्व
बचाए सागर -
संगम
की आस लगाए, अनवरत महातट
की ओर बहती जाए। क्या
पाया, क्या खोया, अर्थ -
हीन हैं सारे गणित,
बंद मुट्ठी में
मेरे अब
कुछ
भी नहीं, मायावी जुगनू उड़ गए कब
मुझे उसकी ख़बर नहीं, अब
जीवन लगे बहुत सहज।
* *
- शांतनु सान्याल
बहुत सुन्दर आदरणीय
जवाब देंहटाएंसादर
असंख्य धन्यवाद - - नमन सह।
हटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (23-02-2019) को "करना सही इलाज" (चर्चा अंक-3256) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
--
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
असंख्य धन्यवाद - - नमन सह।
हटाएंमायावी जुगनू उड़ गए कब
जवाब देंहटाएंमुझे उसकी ख़बर नहीं, अब
जीवन लगे बहुत सहज।
बहुत सुंदर पक्तियां ,सादर नमन
असंख्य धन्यवाद - - नमन सह।
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