ओ बधिर बन गए, भरी
सभा में जब मैंने,
राज़ ए गिरह
खोल दी,
रहनुमाई करने वाले तब पा
ए ज़ंजीर बन गए झूठे
वादों पे हमने हर
पल यूँ जां
निसार
किया,हर बात उनकी आख़िर
ज़हर बुझे तीर बन गए। बंद
आँखों का ईमान हमें
कहीं का न छोड़ा,
अपनों के बीच
देखिये
गुमशुदा तस्वीर बन गए। इश्तहारों
के भीड़ में सच्चा ताबीज़
बेमानी है,खोटे सिक्के
ही शहर में बुलंद
तक़दीर बन
गए।
* *
- शांतनु सान्याल
अपनों के बीच
जवाब देंहटाएंदेखिये
गुमशुदा तस्वीर बन गए। ...वाह !!बहुत ख़ूब आदरणीय
सादर
असंख्य धन्यवाद - - नमन सह।
हटाएंअपनों के बीच
जवाब देंहटाएंदेखिये
गुमशुदा तस्वीर बन गए। ...वाह !!बहुत ख़ूब आदरणीय
सादर
असंख्य धन्यवाद आदरणीय मित्र - - नमन सह।
हटाएंआपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन वो अपनी दादी की तरह लगती है : ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है.... आपके सादर संज्ञान की प्रतीक्षा रहेगी..... आभार...
जवाब देंहटाएंअसंख्य धन्यवाद - - नमन सह।
हटाएंअसंख्य धन्यवाद - - नमन सह।
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