21 फ़रवरी, 2019

गहराइयों के ख़ातिर - -

लहरों की नियति में था आख़िर बिखर जाना,
कुछ दूर दिगंत से आए कुछ उठे ख़ामोश
मेरे अधर किनारे, कुछ छलके, कुछ
थम कर रह गए, मेरी आँखों के
अरमान सारे। कभी हम
रहे तुम से बेख़बर,
और कभी
तुम ने
ख़ुद को खुलने न दिया, कुछ अनकही - -
बातों को तुमने चाह कर भी कभी
सुलगने न दिया। कोई शीशी
बंद इत्र के मानिंद था
तुम्हारा प्रणय -
निवेदन,
ह्रदय संदूक में रहा एकाकी, न जाने क्यों
तुमने उसे उन्मुक्त बिखरने न दिया।
शायद गहराई न हो जाए कम,
इसी डर से जीवन तट को
तुमने असमय यूँ ही
सिमटने न
दिया।

* *
- शांतनु सान्याल


 

4 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (22-02-2019) को "नमन नामवर" (चर्चा अंक-3255) पर भी होगी।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    --
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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