उन निःस्तब्ध क्षणों में, कुछ अदृश्य
अश्रु कण भी, निश्चित झरे मेरी
आँखों से, आँचल की थी
अपनी ही अलग
परिसीमा,
यूँ तो न जाने कितने पुष्प झरे, उन -
नाज़ुक शाखों से। मेरी चाहतों
का हासिल जो भी हो,
लेकिन, मेरी
प्रीत का
कोई हिसाब नहीं, आँखों की लिपि से
लिखी, उस गहन अनुभूति की
शायद, कोई किताब नहीं।
ईशान कोणीय मेघ
थे या घनीभूत
झंझावर्त,
बरसे लेकिन अपने ही शर्तों पर, यूँ -
तो सारा जिस्म था ज़ंजीरों से
जकड़ा हुआ, फिर भी यूँ
लगा सावनिया बूंदें
गिरें शीशे के
परतों पर।
**
- शांतनु सान्याल
अश्रु कण भी, निश्चित झरे मेरी
आँखों से, आँचल की थी
अपनी ही अलग
परिसीमा,
यूँ तो न जाने कितने पुष्प झरे, उन -
नाज़ुक शाखों से। मेरी चाहतों
का हासिल जो भी हो,
लेकिन, मेरी
प्रीत का
कोई हिसाब नहीं, आँखों की लिपि से
लिखी, उस गहन अनुभूति की
शायद, कोई किताब नहीं।
ईशान कोणीय मेघ
थे या घनीभूत
झंझावर्त,
बरसे लेकिन अपने ही शर्तों पर, यूँ -
तो सारा जिस्म था ज़ंजीरों से
जकड़ा हुआ, फिर भी यूँ
लगा सावनिया बूंदें
गिरें शीशे के
परतों पर।
**
- शांतनु सान्याल
ब्लॉग बुलेटिन की दिनांक 10/08/2019 की बुलेटिन, "मुद्रा स्फीति के बढ़ते रुझानों - दाल, चावल, दही, और सलाद “ , में आप की पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
जवाब देंहटाएंअसंख्य धन्यवाद आदरणीय मित्र - - नमन सह।
हटाएंबेहतरीन सृजन सर
जवाब देंहटाएंसादर
असंख्य धन्यवाद आदरणीय मित्र - - नमन सह।
हटाएंसुन्दर प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंअसंख्य धन्यवाद आदरणीय मित्र - - नमन सह।
हटाएंकोमल कल्पना
जवाब देंहटाएंअसंख्य धन्यवाद आदरणीय मित्र - - नमन सह।
हटाएंअसंख्य धन्यवाद आदरणीय मित्र - - नमन सह।
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