कदाचित मरुधरा है हिय के अंदर, अनवरत -
प्यास जगाए, ख़ानाबदोश हो कर भी
मेरी दुनिया, तुम्हीं तक आ कर,
न जाने क्यों रुकना चाहें।
इक अजीब सा मोह
है, तुम्हारे सजल
नयन के
कोर,
अलस दुपहरी में जैसे बरगद की जटाएँ, सूखती
नदी को छूना चाहें। बहोत मुश्किल है, इन
हथेलियों के अंकगणित को समझना,
जो कुछ भी हो हासिल, इस पल
की मेहरबानी है, जो खो
गया, सो खो गया,
हम क्यों न
उसे भूलना
चाहें। ख़ानाबदोश हो कर भी मेरी दुनिया, तुम्हीं
तक आ कर, न जाने क्यों रुकना चाहें।
* *
- शांतनु सान्याल
प्यास जगाए, ख़ानाबदोश हो कर भी
मेरी दुनिया, तुम्हीं तक आ कर,
न जाने क्यों रुकना चाहें।
इक अजीब सा मोह
है, तुम्हारे सजल
नयन के
कोर,
अलस दुपहरी में जैसे बरगद की जटाएँ, सूखती
नदी को छूना चाहें। बहोत मुश्किल है, इन
हथेलियों के अंकगणित को समझना,
जो कुछ भी हो हासिल, इस पल
की मेहरबानी है, जो खो
गया, सो खो गया,
हम क्यों न
उसे भूलना
चाहें। ख़ानाबदोश हो कर भी मेरी दुनिया, तुम्हीं
तक आ कर, न जाने क्यों रुकना चाहें।
* *
- शांतनु सान्याल
बहुत खूब ,लाजबाब ...
जवाब देंहटाएंअसंख्य धन्यवाद - - नमन सह।
हटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंअसंख्य धन्यवाद - - नमन सह।
हटाएंआपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द में" गुरूवार 28 मार्च 2019 को साझा की गई है......... पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंअसंख्य धन्यवाद - - नमन सह।
हटाएंवाह बहुत खूबसूरत रचना।
जवाब देंहटाएंअसंख्य धन्यवाद - - नमन सह।
हटाएंबहुत सुन्दर...
जवाब देंहटाएंअसंख्य धन्यवाद - - नमन सह।
हटाएंख़ानाबदोश हो कर भी मेरी दुनिया, तुम्हीं
जवाब देंहटाएंतक आ कर, न जाने क्यों रुकना चाहें।
बहुत खूबसूरत अभिव्यक्ति।
असंख्य धन्यवाद - - नमन सह।
हटाएंअसंख्य धन्यवाद - - नमन सह।
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