वैसे तो कई बार बिन बादल ही होती है बरसात,
चाहने भर से, कहाँ मिलती है सम्मोह से निजात,
हर कोई चाहता है खुले आस्मां में परवाज़ भरना,
ख़्वाबों की तलाश में ज़िंदगी से हो गई मुलाक़ात,
एहसास ए सराब था, जिसका पीछा किया ताउम्र,
अनबुझ तिश्नगी ने समझा दिया मय्यार ए औक़ात,
इक बून्द की अहमियत होती है बड़ी समंदर के आगे,
अज़ाब से छुटकारा नहीं मिलता दे कर चंद ज़कात,
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- - शांतनु सान्याल
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल गुरुवार (26-01-2023) को "आम-नीम जामुन बौराया" (चर्चा-अंक 4637) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
दिल की गहराइयों से शुक्रिया।
हटाएंबहुत ख़ूब
जवाब देंहटाएंदिल की गहराइयों से शुक्रिया।
हटाएंसुंदर प्रस्तुति 👌👌
जवाब देंहटाएंदिल की गहराइयों से शुक्रिया।
हटाएंराम राम जी, शांतनु जी, बहुत ख्ाूबसूरत रचना लिखी...वाह...बसंत आगमन की आपको ढेर सारी शुभकामनायें
जवाब देंहटाएंदिल की गहराइयों से शुक्रिया।
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