न जाने किस गहन मोड़ पर छोड़ आए
ज़िन्दगी की मासूम घड़ियां, अब
तो किश्तों में मिलती हैं पल
दो पल की खुशियां, वो
ख़्वाबों का है कोई
संदूक, जिस
में तह
कर
गया कोई रेशमी लिबास, जिसे खोलते
ही बिखर उठता है मुअत्तर एहसास,
कोई न हो कर भी, होता है यहीं
कहीं आसपास, आहट
विहीन क़दमों से
आधी रात चाँद
चढ़ता है
आस्मां
की
सीढ़ियां, न जाने किस गहन मोड़ पर
छोड़ आए ज़िन्दगी की मासूम
घड़ियां । शब्दों के क्रिस -
क्रॉस में ज़िन्दगी
तलाश करती
है सीधा -
साधा
सा
रास्ता, सब कुछ ठहरा होता है नाज़ुक
बर्फ़ की सतह पर, टूटते ही कोई
नहीं रखता, किसी से कोई भी
वास्ता, क्रमशः जलते -
बुझते से रहते हैं दूर
तक मृगतृषित
फूलझड़ियां,
न जाने
किस
गहन मोड़ पर छोड़ आए ज़िन्दगी की
मासूम घड़ियां, अब तो किश्तों
में मिलती हैं पल दो पल
की खुशियां ।
* *
- - शांतनु सान्याल
14 जनवरी, 2023
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बहुत सुंदर कविता।
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