जो अजनबी सा लगे वो मुद्दतों का वाबस्ता निकला,
जो दिल के क़रीब था, वही दूसरे से मुब्तला निकला,
ख़ुशफ़हमी थी या ख़ुदकुशी, न पूछ मुझ से ऐ दोस्त,
जिसे अपना समझा, वही क़ातिल से मिला निकला,
औराक़ ए ज़िन्दगी की थी अपनी ही अलग मज़बूरी,
कागज़ी फूल की तरह, इश्क़ का सिलसिला निकला,
बहुत दूर बियाबां पहाड़ियों पे हैं, कुछ बादलों के साए,
हद ए नज़र के उस पार, सदियों का फ़ासला निकला,
जलते आग पे हाथ रख कर ली थी अहद ए इन्क़लाब,
मशाल जलते रहे, लेकिन मीर ए कारवां बुझा निकला,
* *
- - शांतनु सान्याल
20 जनवरी, 2023
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नमस्ते,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा शनिवार 21 जनवरी 2023 को 'प्रतिकार फिर भी कर रही हूँ झूठ के प्रहार का' (चर्चा अंक 4636) पर भी होगी। आप भी सादर आमंत्रित है। 12:01 AM के बाद आपकी प्रस्तुति ब्लॉग 'चर्चामंच' पर उपलब्ध होगी।
दिल की गहराइयों से शुक्रिया।
हटाएंआपका हार्दिक आभार।
हटाएंनमस्ते.....
जवाब देंहटाएंआप को बताते हुए हर्ष हो रहा है......
आप की ये रचना लिंक की गयी है......
दिनांक 22/01/2023 को.......
पांच लिंकों का आनंद पर....
आप भी अवश्य पधारें....
आपका हार्दिक आभार।
जवाब देंहटाएं