पहाड़ियों के उस पार बुझ रहा है सूर्य,
इस पार सुलग रही है अंतर्व्यथा,
अंधकार सेतु से गुज़र रही
है एकाकी रात, हम
दोनों हैं रूबरू,
खोज रहे
हैं एक
दूजे
की आँखों में शब्द पहेली, निभाए जा
रहे हैं चुपचाप समाज की आदिम
प्रथा, पहाड़ियों के उस पार
बुझ रहा है सूर्य, इस
पार सुलग रही है
अंतर्व्यथा।
कुछ
ख़ानाबदोश शब्द उलझे हुए हैं स्पर्श
बिंदुओं में, कुछ अनछुए अल्फ़ाज़
बिखरे पड़े हैं वक्ष स्थल में
स्वेद कणों के साथ,
सांसों का बीज -
गणित नहीं
सहज
हृदय सूत्रों में बंधा होता है जीवन का
समीकरण, प्रणय काल में छुपा
रहता है दैहिक इति कथा,
पहाड़ियों के उस पार
बुझ रहा है सूर्य,
इस पार
सुलग
रही है अंतर्व्यथा। अंकुरण है प्रकृत -
सत्य, सृष्टि का मौन अनुबंध,
हर कोई बंधा होता है कहीं
न कहीं पञ्च तत्व के
संग, जीवन का
दूसरा नाम
है संधि
पत्र,
बस बदलते रहते हैं हर बार दस्तख़त -
के रंग, मरणोत्तर बदल जाते
हैं सभी पूर्व अनुरागी पता,
पहाड़ियों के उस पार
बुझ रहा है सूर्य,
इस पार
सुलग
रही है अंतर्व्यथा - -
* *
- - शांतनु सान्याल
16 जनवरी, 2023
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आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" मंगलवार 17 जनवरी 2023 को साझा की गयी है
जवाब देंहटाएंपाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
बहुत सुंदर।
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