जीवन नदी, सांझ ढले यथावत
रहे शून्य झोली, अनंत प्रीत
की अशेष माधुकरी, एक
तट है मरु प्रांतर
दूसरा सजल
किनार,
मध्य
द्वीप में बसते हैं जुगनुओं के कुछ घर -
द्वार, मौन व्यथा की होती है एक
सी बोली, सांझ ढले यथावत
रहे शून्य झोली । माणिक
मुक्ता पड़े रहते हैं
परित्यक्त से
ऊसर भूमि
पर, उड़
जाता
है ख़ानाबदोश परिंदा अनजान सफ़र को,
अंतरतम का दीप बन जाता है जब
दिशा सूचक यंत्र, पा जाता है
ये परिश्रांत जीवन चन्दन
वन की डगर को, सब
कुछ लगता है तब
मन को निर्मोह
सा, सभी
उत्सव
फीके
फीके, क्या चाँद रात और क्या सात रंगों -
की होली, सांझ ढले यथावत
रहे शून्य झोली ।
* *
- - शांतनु सान्याल
* माधुकरी - भिक्षा का संकलन जो
दरवाजे दरवाजे घूमकर किया जाय
जैसे भ्रमर मकरंद संचय करता है।
संस्कृत शब्द
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