31 जनवरी, 2023

ये मातृ भूमि हमारी है - -

खण्डित देह की अंतर्यात्रा यथावत जारी है,
भस्म से उठ कर, फिर लड़ने की तैयारी है,

गहनतम अंतःस्थ को बहिः प्रकाश चाहिए,
जन्म - मृत्यु से परे, निश्चित जीत हमारी है,

बाण शिखरों पर, धर्म - समर है पुनर्जागृत,
अनादिकाल से, मातृभूमि सभी पर भारी है,

महाकाल के त्रि नेत्र से फिर हो अभ्युत्थान,
हर युग में हिंस्र बर्बरता मनुष्यता से हारी है,

एक छत्र हों हम वर्तमान काल का है आग्रह,
आसन्न प्रजन्म के लिए, ये कल्याणकारी है,
* *
- - शांतनु सान्याल
 


 

30 जनवरी, 2023

शीर्षक विहीन कविता - -

अद्भुत होती है भावनाओं की ज्यामिति, अक्ष
बिंदु पर कहीं ठहरा रहता है जीवन
एकाकी, धूप - छाँव की तरह
प्रतिध्वनित होती है यादों
की आवृत्ति, मधुऋतु
आता है हर वर्ष ले
कर  कुछ नव
उपहार,
फिर
हम लिखते हैं, शुष्क नदी तट पर शीर्षक - -
विहीन प्रणय कविता, तलाशते हैं हम
रेत के नीचे अविदित जलाधार,
जहाँ छुपी रहती है अनंत
प्रीत की उत्पत्ति, धूप -
छाँव की तरह
प्रतिध्वनित
होती है
यादों
की
आवृत्ति, अद्भुत होती है भावनाओं की - -
ज्यामिति।
* *
- - शांतनु सान्याल
 

 
 

29 जनवरी, 2023

अंदर का सफ़रनामा - -

परिंदा ए मुहाजिर को, शहरियत की मुहर चाहिए,
बेहद गहराई तक देखने के लिए चश्म तर चाहिए,

बबूल की टहनियों में झूलते से हैं ख़्वाबों के घरौंदे,
मुख़्तसर ज़िन्दगी के लिए फ़क़त एक घर चाहिए,

मिट्टी का जिस्म है, और चंद लम्हात की पायेदारी,
शीशे की तरह शफ़ाफ़, देखने की इक नज़र चाहिए,

यूँ इंसानियत का तक़ाज़ा दे कर, सर क़लम न कर,
मज़हब के ताबान के लिए, इस्लाह का हुनर चाहिए,

सच्चाई का है ग़र पैरोकार तो आईने से ख़ौफ़ कैसा,
कफ़न आलूद सरों को, शोज़िस ए रहगुज़र  चाहिए,

अधूरेपन के लिए ज़रूरी है, अंदर से तरमीम करना,
रहनुमा के लिए सब से पहले अमल ए असर चाहिए,
* *
- - शांतनु सान्याल    

अर्थ : शोज़िस ए रहगुज़र - अग्निपथ
ताबान - चमक, पैरोकार - अनुयायी,
चश्म तर - भीगी आंख,  तरमीम - सुधार  

इस्लाह - संशोधन, मुहाजिर - प्रवासी

28 जनवरी, 2023

अदृश्य जलधार - -

सभी अव्यक्त भावनाओं का अंत है इसी किनारे,
छितरे पड़े रहते हैं कुछ लावा लाई, फूलों के
हार, निष्प्रभ अधजली अगरबत्तियां,
बूढ़ा बरगद सब कुछ देखता है
मौन हो कर, हथेलियों
से फिसल कर उड़
जाती हैं रंगीन
तितलियां,
उस एक
अमिट
बिंदु में जा रुकता है जीवन का निर्यास, सूर्यास्त
के बाद विस्मय रेखा से, पुनः उभरते हैं डूबे
हुए सितारे, सभी अव्यक्त भावनाओं
का अंत है इसी किनारे। निमिष
मात्र में स्मृति खंड डूब जाते
हैं समय स्रोत के मध्य,
भस्म की ढेर में
रहते हैं कुछ
अस्थि
अवशेष, पूर्णता अपूर्णता की कहानियों में कहीं -
जीवन खोजता है मरणोत्तर मुक्ति प्रदेश,
रेत के सीने से मिट जाते हैं लौटे हुए
पद चिन्ह, दूरत्व बढ़ कर अंत
में हो जाते हैं सभी बंधन -
मोह से विच्छिन्न,
अदृश्य होते हैं
अन्तर्निहित
प्रीत के
जलधारे, सभी अव्यक्त भावनाओं का अंत है - 
इसी किनारे - -
* *
- - शांतनु सान्याल



 

27 जनवरी, 2023

ख़ामोश दस्तकें - -

लाज़िम था ख़्वाबों का डूबना, खोखली थी कगार,
इक रात का फ़ासला, सूरज है डूबा कहीं उस पार,

सुलगते चाहतों में ज़रूर होगा, मेरा भी अफ़साना,
अपना अपना दामन है, कभी गुल, तो कभी ख़ार,

उड़ रहे हैं ज़र्द पत्ते, जाने कहाँ है आख़रत मंज़िल,
मुबाशिरत हम से भी थी, हमने भी देखी थी बहार,

दस्तकों की उम्र थी मुख़्तसर, म'अदुम हुईं दर पर,
जिस्म तो फ़ानी है, ख़त्म नहीं होता रूह ए इंतज़ार,

ये रहगुज़र की ज़मीं है कोई ख़्वाबीदा कहकशां नहीं,
न चाह कर भी हम को पत्थरों पे चलना है बार बार,
* *
- - शांतनु सान्याल
अर्थ :
मुबाशिरत - आत्मीयता
म'अदुम - विलीन
 

 
 

26 जनवरी, 2023

वफ़ाओं का ईनाम - -

तब्सरा ए जुर्म मालूम नहीं, और सज़ा दे गए,

रूह ए जूनूँ को इक बाज़गस्त ए सदा दे गए,


ईमान ए इश्क़ में दोनों जहां से हुए दर ब दर,

कश्तारगाह में ला कर, जीने की दुआ दे गए,


अंधों के दरबार में, आईना का सच है बेमानी,

झुलसे हुए घरों को और जलने की हवा दे गए,


इंसाफ़ का तराज़ू अपनी जगह रहा पुरअसरार,

उम्र भर की वफ़ा का तवील दर्द ए सिला दे गए,

* *

- - शांतनु सान्याल

24 जनवरी, 2023

निजात आसां नहीं - -

वैसे तो कई बार बिन बादल ही होती है बरसात,

चाहने भर से, कहाँ मिलती है सम्मोह से निजात,


हर कोई चाहता है खुले आस्मां में परवाज़ भरना,

ख़्वाबों की तलाश में ज़िंदगी से हो गई मुलाक़ात, 


एहसास ए सराब था, जिसका पीछा किया ताउम्र,

अनबुझ तिश्नगी ने समझा दिया मय्यार ए औक़ात,


इक बून्द की अहमियत होती है बड़ी समंदर के आगे,

अज़ाब से छुटकारा नहीं मिलता दे कर चंद ज़कात, 

* *

- - शांतनु सान्याल

 

अब के मधुमास में - -

नीलाभ यामिनी हूँ मैं, तुम पूर्ण चन्द्रमा,
बसे हो प्राण वायु सम, मम निःश्वास में,

आम्र कुञ्ज महके लिए हिय में मधु गंध,
सजल स्वप्न सजे, आगंतुक मधुमास में,

जीवन चक्र अनवरत घूमे प्रणय अक्ष पर,
मधुरिम रस भर चले हैं अंतरंग पलाश में,

तर्क - वितर्क से परे है आस्था की दुनिया,
मिट्टी प्रतिमा भी लगे जागृत, विश्वास में,

अंक विनिमय का क्रंदन रहे अपनी जगह,
अनंत सुख मिले त्वम् मधुमय आभास में,

माया मृग ही सही स्वप्न रहे जीवित सदा,
चलते रहें हम निरंतर तिमिर से प्रकाश में,
* *
- - शांतनु सान्याल

   
 
 
 






 

23 जनवरी, 2023

यक़ीन का पैमाना - -

कतर के पर उसने, खोला है क़फ़स के द्वार,
नाख़ुदा का भरम दे कर, डुबोया है बारम्बार,

जो कहता रहा मुझ को, नफ़ीस ए कायनात,
उसी ने भरे बज़्म में, बनाया हिराज इश्तेहार,

क्या सितारे, क्या कहकशां, डूब गए तमाम,
सांसों के साथ सिर्फ़ ज़िंदा है, बेकरां इंतज़ार,

मिट्टी का जिस्म दे कर, लापता है कूज़ा गर,
बहती रही सांसें, पोशीदा सूराख़ के उस पार,

उम्र भर का आशना, आईना भी निकला ग़ैर,
बेमानी है खोज, यहाँ कोई भी नहीं तलबगार,
 
पत्थरों के शहर में, इक शीशा ए मुजस्मा हूँ,
हर मोड़ पे हैं नक़ाबपोश  मुहज़्ज़ब संगसार ।

 - - शांतनु सान्याल

अर्थ :
 क़फ़स - पिंजरा
नाख़ुदा - नाविक
नफ़ीस ए कायनात - ब्रह्माण्ड में अनमोल
हिराज इश्तेहार - नीलामी का विज्ञापन
बेकरां - अथाह, कूज़ा गर - कुम्हार
पोशीदा सूराख़ - अदृश्य छिद्र
नक़ाबपोश मुहज़्ज़ब संगसार - मुखौटे वाले
कुलीन पत्थर मारने वाले,

22 जनवरी, 2023

निशानदेही - -

तिरछी नज़र का था बहाना, मछली की आँख
पे थी निशानदेही, मजलिस ए बादशाह
का है अपना ही अलग क़ानून
ओ क़ायदा, कोई किसी
के मुताल्लिक़ तभी
सोचता है जब
हो कोई
छुपा
हुआ फ़ायदा, बेमतलब लोग, यूँ नहीं करते हैं
आवाजाही, तिरछी नज़र का था बहाना,
मछली की आँख पे थी निशानदेही ।
आलमी जीत से कुछ नहीं हासिल,
हर हाल में ज़रूरी है अपने हम
वतनों से निभाना रिश्ता
ए बिरादरी, वक़्त
बेवक़्त पड़ौस
ही पहले
काम
आता है चाहे रिश्तेदारों का हो बारहा आना
जाना, वक़्त ही बताता है किसने
कितनी दोस्ती निभाई, तिरछी
नज़र का था बहाना, मछली
की आँख पे थी
निशानदेही ।
* *
- - शांतनु सान्याल






21 जनवरी, 2023

 पतझड़ के हमराह - -

ख़ामोश शजर देखता रहा, सूखे पत्तों का गिरना,
खिलने के साथ ही मुक़्क़र्र है, फूलों का बिखरना,

दिल की ज़मीं पर कभी, लब ए दरिया थे आबाद,
मौसम के संग तै था, लेकिन उसका भी सिमटना,

हमने बांधे थे, वक़्त की शाख़ों पे मन्नतों के धागे,
माथे पे था पहले से लिखा हुआ मिल के बिछुड़ना,

हाथों की लकीरों में, कहीं गुम है सितारों का पता,
सफ़र रहा अधूरा, हम सफ़र को था पहले उतरना,

बैरंग लिफ़ाफ़े की तरह चेहरे को उसने लौटा दिया,
बहुत ख़ूबसूरत अंदाज़ था, शिनाख़्त से यूँ मुकरना,

हर मोड़ पे दर ओ बाम हैं, शाम ए चिराग़ से रौशन,
आसां नहीं दर्द ए ज़ीस्त का, सुब्ह से पहले उभरना,
* *
- - शांतनु सान्याल






20 जनवरी, 2023

 मशाल जलते रहे - -

जो अजनबी सा लगे वो मुद्दतों का वाबस्ता निकला,
जो दिल के क़रीब था, वही दूसरे से मुब्तला निकला,

ख़ुशफ़हमी थी या ख़ुदकुशी, न पूछ मुझ से ऐ दोस्त,
जिसे अपना समझा, वही क़ातिल से मिला निकला,

औराक़ ए ज़िन्दगी की थी अपनी ही अलग मज़बूरी,
कागज़ी फूल की तरह, इश्क़ का सिलसिला निकला,

बहुत दूर बियाबां पहाड़ियों पे हैं, कुछ बादलों के साए,
हद ए नज़र के उस पार, सदियों का फ़ासला निकला,

जलते आग पे हाथ रख कर ली थी अहद ए इन्क़लाब,
मशाल जलते रहे, लेकिन मीर ए कारवां बुझा निकला,
* *
- - शांतनु सान्याल

 

19 जनवरी, 2023

जातक गल्प - -

कहाँ हर कोई होता है शत प्रतिशत सुखी,
अपनी अपनी व्यथा है, किसी का
कुछ अधिक, किसी का बेहद
अल्प, दर्पण का है अपना
ही तक़ाज़ा, समय के
संग उड़ जाते
है चेहरे के
रंग,
झुर्रियों के तिर्यक रेखाओं का नहीं होता -
है काया कल्प, अपनी अपनी व्यथा
है, किसी का कुछ अधिक, किसी
का बेहद अल्प । सूर्यास्त
के साथ बढ़ती जाती
है क्षितिज पार
की शून्यता,
अधखुले
द्वार
से हो कर हिंस्र पदचिन्ह पहुँच जाते हैं - -
अंतःगृह तक, मुखौटे के पीछे छुपे
रहते हैं प्याज रंगी चेहरों के
आदिम युगीन परतें,
अंधेरे में वही लूट
खसोट, उजाले
में लोग
सुनाते
हैं
काल्पनिक सभी जातक गल्प, अपनी -
अपनी व्यथा है, किसी का कुछ
अधिक, किसी का बेहद
अल्प ।
* *
- - शांतनु सान्याल
   


 

18 जनवरी, 2023

काँटों का घेरा - -

हृदय पिंजर में कहाँ रुकता है सुख -
पाखी, आँखें खुली शून्य हुआ
रैन बसेरा, स्थिर दृग
जल में तैरते हैं
प्रणय दीप,
बिखरे
पड़े
रहते हैं विस्तीर्ण सैकत में अनगिनत
मृत सीप, दिगंत रेखा में रख
जाता है मोतियों की लड़ी
रात का निस्तब्ध
अंधेरा, हृदय
पिंजर में
कहाँ
रुकता है सुख -पाखी, आँखें खुली - -
शून्य हुआ रैन बसेरा। गुल
मोहर की टहनियों पर
लिखे रहते हैं कुछ
विस्मृत प्रेम
पत्र, कोई
कहीं
नहीं जाता, अपनी अपनी जगह रहते
हैं दिन के उजाले में सभी नक्षत्र,
बहुत कुछ रहता है आँखों से
ओझल, बहुत कुछ
दिखता हैं बन
कर मृग -
जल,
रिश्तों की तर्जुमानी है बस लफ़्ज़ों का
हेर फेर, गुलाब के दामन में रहता
है काँटों का घेरा, हृदय पिंजर
में कहाँ रुकता है सुख -
पाखी, आँखें खुली
शून्य हुआ
रैन -
बसेरा।
* *
- - शांतनु सान्याल

 

17 जनवरी, 2023

निःशर्त प्रणय - -

बहुत ही कठिन है प्रणयी हृदय होना, - -
लोग आकाश की तरह अपने
वक्षस्थल में समेटना
चाहते हैं सितारों
का समारोह,
चाहते हैं
अदृश्य
मालिकाना हक़, कौन समझाए उन्हें - -
रूह होती है आजन्म उन्मुक्त,
चाँदनी रात की तरह ढल
जाता है चार दिन में
देहोत्सव, पल
भर का
होता
है सांसों का आरोह अवरोह, लोग आकाश
की तरह अपने वक्षस्थल में समेटना
चाहते हैं सितारों का समारोह ।
नभ बनने से कहीं कठिन
है एक विस्तृत वृक्ष
का बनना, जो
दे सके सभी
को एक
सायादार आश्रय, बहुत ही कठिन है प्रणयी
हृदय होना, प्रेमी बनने के लिए ज़रूरी
है मंदिर का सांध्य प्रदीप बनना,
तुलसी के नीचे प्रतीक्षारत
शिखाओं से धीरे धीरे
जलना, उर्ध्वमुखी
सुरभित धूप
के साथ
देह
प्राण में बिखरना, प्रणयी मानव के लिए - -
ज़रूरी है त्यागना स्व मोह, बहुत ही
कठिन है प्रणयी हृदय होना,
लोग आकाश की तरह
अपने वक्षस्थल में
समेटना चाहते
हैं सितारों
का
समारोह ।
* *
- - शांतनु सान्याल

16 जनवरी, 2023

 सूर्यास्त के बाद - -

पहाड़ियों के उस पार बुझ रहा है सूर्य,
इस पार सुलग रही है अंतर्व्यथा,
अंधकार सेतु से गुज़र रही
है एकाकी रात, हम
दोनों हैं रूबरू,
खोज रहे
हैं एक
दूजे
की आँखों में शब्द पहेली, निभाए जा
रहे हैं चुपचाप समाज की आदिम
प्रथा, पहाड़ियों के उस पार
बुझ रहा है सूर्य, इस
पार सुलग रही है
अंतर्व्यथा।
कुछ
ख़ानाबदोश शब्द उलझे हुए हैं स्पर्श
बिंदुओं में, कुछ अनछुए अल्फ़ाज़
बिखरे पड़े हैं वक्ष स्थल में
स्वेद कणों के साथ,
सांसों का बीज -
गणित नहीं
सहज
हृदय सूत्रों में बंधा होता है जीवन का
समीकरण, प्रणय काल में छुपा
रहता है दैहिक इति कथा,
पहाड़ियों के उस पार
 बुझ रहा है सूर्य,
इस पार
सुलग
रही है अंतर्व्यथा। अंकुरण है प्रकृत -
सत्य, सृष्टि का मौन अनुबंध,
हर कोई बंधा होता है कहीं
न कहीं पञ्च तत्व के
संग, जीवन का
दूसरा नाम
है संधि
पत्र,
बस बदलते रहते हैं हर बार दस्तख़त -
के रंग, मरणोत्तर बदल जाते
हैं सभी पूर्व अनुरागी पता,
पहाड़ियों के उस पार
बुझ रहा है सूर्य,
इस पार
सुलग
रही है अंतर्व्यथा - -
* *
- - शांतनु सान्याल


14 जनवरी, 2023

आतिशी बिंब - -

न जाने किस गहन मोड़ पर छोड़ आए
ज़िन्दगी की मासूम घड़ियां, अब
तो किश्तों में मिलती हैं पल
दो पल की खुशियां, वो
ख़्वाबों का है कोई
संदूक, जिस
में तह
कर
गया कोई रेशमी लिबास, जिसे खोलते
ही बिखर उठता है मुअत्तर एहसास,
कोई न हो कर भी, होता है यहीं
कहीं आसपास, आहट
विहीन क़दमों से
आधी रात चाँद
चढ़ता है
आस्मां
की
सीढ़ियां, न जाने किस गहन मोड़ पर
छोड़ आए ज़िन्दगी की मासूम
घड़ियां । शब्दों के क्रिस -
क्रॉस में ज़िन्दगी
तलाश करती
है सीधा -
साधा
सा
रास्ता, सब कुछ ठहरा होता है नाज़ुक
बर्फ़ की सतह पर, टूटते ही कोई
नहीं रखता, किसी से कोई भी
वास्ता, क्रमशः जलते -
बुझते से रहते हैं दूर
तक मृगतृषित
फूलझड़ियां,
न जाने
किस
गहन मोड़ पर छोड़ आए ज़िन्दगी की
मासूम घड़ियां, अब तो किश्तों
में मिलती हैं पल दो पल
की खुशियां ।
* *
- - शांतनु सान्याल

अनाहूत आगंतुक - -

कोहरे में डूबा हुआ नन्हा सा एक स्टेशन, -
पहाड़ियों की तलहटी में बसा हुआ
गुमशुदा स्मृति प्रदेश, कच्चे
पक्के रास्ते से हो कर
आहिस्ता गुज़रता
हुआ समय का
रिक्शा चक्र,
हवाओं
में पके धान की ख़ुश्बू, बहुत कुछ मानचित्र
में नहीं होता है विशेष, पहाड़ियों की
तलहटी में बसा हुआ गुमशुदा
स्मृति प्रदेश। अध गिरा
हुआ खजूर का पेड़,
उम्रदराज़ पीपल
का दरख़्त,
पांच
दशक पुराना पक्षियों का कलरव, अंतरतम
में बसा कोई सोंधा गंध, बबूल की
टहनियों से झूलते परिंदों के
घरौंदे, प्राचीन मंदिर का
पुनरुद्धार, रंग रोगन
से झांकते हुए
विस्मृत
कुछ
शिलालेख, दीर्घ दस्तक के बाद खुलता है बंद     
कपाट, " कौन हो तुम अनाहूत आगंतुक ? "
"यहाँ कुछ भी नहीं है अवशेष "
पहाड़ियों की तलहटी में
बसा हुआ गुमशुदा
स्मृति प्रदेश ।
द्वार धीरे
से बंद
हो जाता है दूर तक बिखरे पड़े रहते हैं ओस
के बूंद - -
* *
- - शांतनु सान्याल
 
 

12 जनवरी, 2023

* माधुकरी - -

श्वास - निःश्वास के मध्य बहती जाए
जीवन नदी, सांझ ढले यथावत
रहे शून्य झोली, अनंत प्रीत
की अशेष माधुकरी, एक
तट है मरु प्रांतर
दूसरा सजल
किनार,
मध्य
द्वीप में बसते हैं जुगनुओं के कुछ घर -
द्वार, मौन व्यथा की होती है एक
सी बोली, सांझ ढले यथावत
रहे शून्य झोली । माणिक
मुक्ता पड़े रहते हैं
परित्यक्त से
ऊसर भूमि
पर, उड़
जाता
है ख़ानाबदोश परिंदा अनजान सफ़र को,
अंतरतम का दीप बन जाता है जब
दिशा सूचक यंत्र, पा जाता है
ये परिश्रांत जीवन चन्दन
वन की डगर को, सब
कुछ लगता है तब
मन को निर्मोह
सा, सभी
उत्सव
फीके
फीके, क्या चाँद रात और क्या सात रंगों -
की होली, सांझ ढले यथावत
रहे शून्य झोली ।
* *
- - शांतनु सान्याल 

*  माधुकरी - भिक्षा का संकलन जो
दरवाजे दरवाजे घूमकर किया जाय
जैसे भ्रमर मकरंद संचय करता है।
संस्कृत शब्द




 


11 जनवरी, 2023

दो बून्द - -

अनबुझ तृष्णा रहती है अंतरतम के गहन में,

बहुत कुछ छुपा होता है चेहरे के परावर्तन में,


ज़रूरी नहीं अधर पर शब्दों को सजाया जाए,

तिक्त इतिहास लिखा रहता है  निःशब्द कथन में,


झिलमिलाते इस मंडी में, हर चीज़ है बिकाऊ,

कुछ भी नहीं बदला है दुनियादारी के चलन में,


सिर्फ़ मुख़ौटे बदलते हैं, किरदार वही रहता है,

कोई साथ नहीं देता जीवन के अंतिम थकन में,


उदय अस्त के मध्य, बंधा होता है जीवन संग्राम,

मंद मुस्कान के संग नम बूँद भी रहते हैं नयन में, 

- - शांतनु सान्याल 




 




09 जनवरी, 2023

मुख़्तसर रात - -

बुरे वक़्त का क़ाफ़िला है, ये भी गुज़र जाएगा,

सैलाब ए तीरगी है चाँद निकलते उतर जाएगा,

उतरनों को देख कर, यूं न मुस्कुराइए मोहतरम,
किरदार हो ख़ूबसूरत तो नया बन संवर जाएगा,

उसके हाथों में है चाबुक तो वहशीपन ज़िंदा हो,
ऊँचे दहाड़ के आगे रिंगमास्टर भी ठहर जाएगा,

डूबते सूरज को देख सब लोग मुझसे मुख़ातिब हैं,
मुख़्तसर है रात, सुबह तक दर्द से उभर जाएगा,

बुझ चले हैं झूलते फ़ानूस के चिराग़ रफ़्ता रफ़्ता,
जाते, जाते, मुहोब्बत का क़ातिल असर जाएगा,
- - शांतनु सान्याल

सांसों का ठिकाना - -

उजाले का पुल टूट कर, बिखरता रहा रात भर,
दिल का दीया, अनवरत सिहरता रहा रात भर,

गिरते पत्तों के हमराह था, मुहोब्बत का सफ़र,
दरख़्त ए जिस्म गिर के, संभलता रहा रात भर,

सरसराहटों में कहीं, छुपे थे सभी यादों के साए,
आहटों को मैं, नज़र अंदाज़ करता रहा रात भर,

अज्ञात मंज़िल पे है, बोझिल सांसों का ठिकाना,
न जाने क्यूँ बारहा करवट बदलता रहा रात भर,

शहर से सहरा तक उठ रहे हैं घने धुएं के बादल,
ज़ेरे सीना, अनबुझ ख़्वाब सुलगता रहा रात भर,

जिस्म ओ रूह के बीच बढ़ती रही अदृश्य दूरियां,
अस्तित्व मोम की मानिंद पिघलता रहा रात भर *
* *
- - शांतनु सान्याल

08 जनवरी, 2023

 कोहरे की दुनिया - -

कभी उतरो झूलते अलिंद से नीचे, ऊंचाई से
हर चीज़ लगती है बोन्साई, भीड़ में
खोने का सुख अपने आप में
होता है अद्भुत, स्वेद गंध
से मिल कर, एक
समान हो
जाती
है मानव परछाई, ऊंचाई से हर चीज़ लगती -
है बोन्साई । कोहरे की दुनिया मिटा देती
है तमाम अलहदगी, ठिठुरन भरी
सर्दियों में, जलता अलाव
नहीं पूछता है सबब -
ए आवारगी, इक
आंच, जो भर
दे जिस्म
ओ जां
में जीने की ताज़गी, ये ज़रूरी नहीं कि हमेशा
अपेक्षित सुख देगी पश्मीने की रजाई,
ऊंचाई से हर चीज़ लगती है
बोन्साई ।
* *
- - शांतनु सान्याल

07 जनवरी, 2023

 🌿ऋणमुक्ति - - 🌿

फटे पुराने जिल्द के अंदर से झांकती है
ज़िन्दगी, शब्दों के भीड़ से लेकिन
आ रही है अब भी सूखे गुलाब
की ख़ुश्बू, सूख कर झर
जाते हैं सभी वयोवृद्ध
पल्लव, अनुराग
कभी सूखता
नहीं, मधु -
ऋतु से
टहनियों का रिश्ता कभी टूटता नहीं ।
उन्मुक्त नीला आकाश, धूसर
पृथ्वी के वक्षस्थल पर
लिखी हुईं हरित
कविताएं,  
सुदूर
मुहाने पर नदी का मौन समर्पण, न
जाने कितने अज्ञात गंतव्यों से
वार्तालाप करती मायावी
दिगंत रेखा, असंख्य
बिंबों को अपने
सीने में
समेटे
हुए
मुस्कुराता है हर हाल में जीवन दर्पण,
सुदूर मुहाने पर नदी का मौन
समर्पण, ऋणमुक्त का
सुख होता है परम
सुख, जिसका
जितना हो
तक़ाज़ा
उसे
उसका उचित भाग करें अर्पण - - - - 🌿🌿
* *
- - शांतनु सान्याल🍂


06 जनवरी, 2023

 आदमी से बुद्ध - - 💐🌿

उतर चढ़ाव तो हैं एक ही सिक्के के दो पहलू,
दिक् शून्यता में रह कर भी जीवन नहीं
होता अवरुद्ध, बहोत मुश्किल है
सरल रेखा बन कर दूर
तक अविराम
गुज़रना,
हर
मोड़ पर हैं तिर्यक रेखाओं के अशेष जाल, 
आसान कहाँ अंध सुरंगों से यूँ बेख़ौफ़
हो कर निकलना, जीने की ललक
बनने नहीं देती आदमी से
बुद्ध, दिक् शून्यता
में रह कर भी
जीवन
नहीं
होता अवरुद्ध । मधुर विष के सिवा कुछ भी
नहीं ये ज़िन्दगी, नग्न सत्य है जीवन -
यापन, दिल की ख़ूबसूरती कोई
नहीं देखता, सभी देखना
चाहें दैहिक विज्ञापन,
सब दृष्टिकोण
के हैं बिंदु,
अपना
अपना सत्यापन, कोई भी शख़्स नहीं यहाँ,
चौबीस कैरेट शुद्ध, दिक् शून्यता में
रह कर भी जीवन नहीं
होता अवरुद्ध ।
* *
- - शांतनु सान्याल
 

03 जनवरी, 2023

प्रणय पथिक - -💐🌿

🌿रात ढलते ही उतर गए सभी रौनक़ ओ उफ़ान,
नए - पुराने का द्वन्द्व कैसा, सब हैं एक समान,

जीवन रेखा का रहस्य रहता है अनसुलझा सा,
कोई नहीं इस संसार में समय से बड़ा बलवान,

अदृश्य बंध के आगे, होते हैं सभी यहाँ मजबूर,
बिन नियुक्ति के लौटा देता है यम का दरबान,

जीवनचक्र नहीं रुकता रहता है सदा गतिशील,
व्यर्थ है गणना नियति के हाथों होती है कमान,

अंतहीन हिसाब फिर भी जीवन पृष्ठ रहा कोरा,
अनंत मोह, शून्य ह्रदय को भरना नहीं आसान,

प्रणय पथिक की राह जाती है बियाबां से हो कर,
बिछे रहते हैं क़दम क़दम पर, कांटे और पाषाण,🌿
* *
- - शांतनु सान्याल  
 
  

01 जनवरी, 2023

 कांच के ख़्वाब - -

मृगतृष्णा है कोई पलाश रंगों का, उठ रही
हैं जाने कहाँ से आतशी लपटें, इन
बर्फ़ से ढंकी वादियों में, कोई
फाल्गुनी ख़्वाब है जो
अक्सर बहकाता
है मुझे, वो
कोई
गहन माया है या तिलस्मी साया, कभी -
मद्धम, कभी शदीद उभरता है जिस्म
ओ जां से हो कर, बार बार उसे
छूने को उकसाता है मुझे,
कोई फाल्गुनी ख़्वाब
है जो अक्सर
बहकाता
है
मुझे । हद ए नज़र तक है कोहरे में डूबे हुए
दरिया के दोनों किनार, बेपाया पुल
है इश्क़ ए जुनूं, झूलता रहता
है सिफ़र के ऊपर, जो
कर जाता है हमें
बहोत दूर इस
दुनिया से
दर -
किनार, किसी कैलिडोस्कोप की तरह कांच
के ख़्वाब वो दिखाता है मुझे, कोई
फाल्गुनी ख़्वाब है जो अक्सर
बहकाता है मुझे - -
* *
- - शांतनु सान्याल

अतीत के पृष्ठों से - - Pages from Past