13 जनवरी, 2014

शाश्वत मानवीय अहसास - -

कुहासा भरे उस पथ पर कहीं, आज 
भी रुके रुके से हैं निःश्वास,
वाट जोहते हैं सजल 
नयन, न जाने 
मन में है 
किस 
के मिलने की आस, वो अदृश्य हो -
कर भी है कहीं शामिल गहन  
अंतरतम के बीच, कभी 
वो उभरे व्यथित 
चेहरों में -
मौन !
कह जाए जीवन सारांश, कभी वो 
भटके जन अरण्य में, ह्रदय 
में लिए मृग तृष्णा 
गंभीर, कभी 
ठहरे 
अनाम बूंद बनकर पथराई आँखों 
के तीर, निस्तब्ध प्रतिध्वनि 
हो कर भी वो कर जाए 
जीवन मंथन, ले 
जाए सुदूर 
कभी,
और कभी रहे यहीं आसपास, बन 
कर एक शाश्वत मानवीय 
अहसास - - 

* * 
- शांतनु सान्याल 
http://sanyalsduniya2.blogspot.com/
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