10 जनवरी, 2014

सुबह की नरम धूप - -

न रोक, ऐ दरख्त बुलंद सुबह की नरम 
धूप, कुछ टुकड़े ही सही बाँट ले 
मेरे शिकस्ता दहलीज़ 
के साथ, भीगे 
ख्वाबों 
को इक मुश्त अहसास ए ज़िन्दगी तो 
मिले, तेरी टहनियों में खिलें 
मौसमी फूल या हों 
फलों से झुके 
भरपूर !
ग़र न मिले ख़ुशी दर ज़ेर साया, ऐसी -
बुलंदी से फ़ायदा क्या, न भूल कि 
इक चिंगारी, झरे पत्तों के 
बीच कर जाए लंका 
दहन, लम्हों 
में न 
हो जाए कहीं तबाह, ये सब्ज़ सल्तनत
तेरी - - 

* * 
- शांतनु सान्याल  


http://sanyalsduniya2.blogspot.com/
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