न रोक, ऐ दरख्त बुलंद सुबह की नरम
धूप, कुछ टुकड़े ही सही बाँट ले
मेरे शिकस्ता दहलीज़
के साथ, भीगे
ख्वाबों
को इक मुश्त अहसास ए ज़िन्दगी तो
मिले, तेरी टहनियों में खिलें
मौसमी फूल या हों
फलों से झुके
भरपूर !
ग़र न मिले ख़ुशी दर ज़ेर साया, ऐसी -
बुलंदी से फ़ायदा क्या, न भूल कि
इक चिंगारी, झरे पत्तों के
बीच कर जाए लंका
दहन, लम्हों
में न
हो जाए कहीं तबाह, ये सब्ज़ सल्तनत
तेरी - -
* *
- शांतनु सान्याल
http://sanyalsduniya2.blogspot.com/
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धूप, कुछ टुकड़े ही सही बाँट ले
मेरे शिकस्ता दहलीज़
के साथ, भीगे
ख्वाबों
को इक मुश्त अहसास ए ज़िन्दगी तो
मिले, तेरी टहनियों में खिलें
मौसमी फूल या हों
फलों से झुके
भरपूर !
ग़र न मिले ख़ुशी दर ज़ेर साया, ऐसी -
बुलंदी से फ़ायदा क्या, न भूल कि
इक चिंगारी, झरे पत्तों के
बीच कर जाए लंका
दहन, लम्हों
में न
हो जाए कहीं तबाह, ये सब्ज़ सल्तनत
तेरी - -
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