जीर्ण धार लिए बह रही है अरण्य नदी,
तराई और पहाड़ के मध्य है कहीं
इक मृत घाटियों का संसार,
बिखरे पड़े हैं अस्थियां
दूर दूर तक, सघन
जंगल के मध्य
जारी है मृगों
का करुण
चीत्कार,
चिर
परिचित पुरातन मुखौटों का संस्कार, -
तराई और पहाड़ के मध्य है कहीं
इक मृत घाटियों का संसार।
अभयारण्य का बोर्ड है
अपनी जगह, लोग
देखते हैं नंगी
आँखों से
अँधेरे
में
रोमांचक दृश्यावली, स्वयं को घेर रखा
है कंटीले बाड़ से, सब कुछ देख कर
भी, कुछ भी नहीं देखते हैं हम
खिड़कियों के आड़ से,
इक अंध परिधि
के मध्य हम
अक्सर
बन
जाते हैं कृत्रिम मूक बधिर, तब समाज
की परिभाषा बदल जाती है पल भर
में, हम परम सुखी होते हैं अपने
घर में, शुतुरमुर्ग की तरह
एक न एक दिन हम
भी हो जाते हैं हिंस्र
शिकार, तमाम
कोशिशें तब
होती हैं
बेकार, तराई और पहाड़ के मध्य है कहीं
इक मृत घाटियों का संसार।
- शांतनु सान्याल