साँझ से पहले झील का सौंदर्य रहता है शीर्ष पर, ठंडी हवाएं देती हैं ग्रीष्म में भी शिशिर का
आभास, उड़ते पत्तों के मध्य बहुत
समीप रहता है सुदूर का धूसर
आकाश, सूर्यास्त सब कुछ
बदल देता है, रात के
गहराते ही जाग
उठती है सुप्त
मृगया की
प्यास,
सुबह के उजाले में उभर आते हैं हिंस्र पद चिन्ह !
लहूलुहान किनार, जनअरण्य में खो जाते हैं
विगत रात के सभी चीख पुकार, कुछ
गल्प खो जाते हैं अंध गलियों में जा
कर, कुछ स्वप्न मर जाते हैं ओढ़
कर अदृश्य अंधकार, मृत
उड़ान पुल सहसा हो
उठता है जीवित,
अपनी जगह
कभी नहीं
रुकती
वक़्त
की रफ़्तार, मृग हो या मानव कोई फ़र्क़ नहीं - -
पड़ता, मुड़ कर देखने का किसे है अवकाश,
रात के गहराते ही जाग उठती है सुप्त
मृगया की प्यास ।
- - शांतनु सान्याल
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