लब ए चिराग़ को कई बार बुझते हुए देखा है,
बज़्म है उगते सूरज की दुआ सलाम हो जाए,
धूप की उतराई में ताज को झुकते हुए देखा है,
इतना भी ख़ौफ़ ठीक नहीं कि बेज़ुबां हो जाएं,
किनारे से घबराए लहरों को लौटते हुए देखा है,
इजलासे फ़तह बहुत हुआ ज़मीं पर लौट आएं,
तख़्त के नीचे ज़मीं को खिसकते हुए देखा है,
हर शख़्स को चाहिए यहाँ ज़मानत ए ज़िन्दगी,
अज़ीम पीपल को पतझर में झरते हुए देखा है,
लब ए चिराग़ को, कई बार बुझते हुए देखा है ।
- - शांतनु सान्याल
वाह |
जवाब देंहटाएंअसंख्य आभार मान्यवर, आपकी टिप्पणी प्रेरणा जगाती है नमन सह ।
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