आग सुलगती सी अपनी जगह सुदूर कोई धुआं न था,
सराय तकता रहा हद ए नज़र कहीं कोई कारवां न था,
तमाशबीनों के बीच ज़िंदगी, नीलाम होती रही अक्सर,
हैरान से सभी चेहरे हाथ बढ़ाने को कोई मेहरबाँ न था,
धूप की अपनी है मजबूरी ढल चली सूरज के छुपते ही
प्याली बढ़ाई थी उसने, जब दिल में कोई अरमां न था,
हासिए से उभर के, कुछ जज़्बात तहरीर तक न पहुँचे,
लोग सोचा किए गूंगा जिसे, जनम से वो बेज़ुबाँ न था,
हर एक मोड़ पे यूं तो, ढेर सारे मंज़िलों के थे संगे मील,
जिस्म से हट कर रूह तक उतरने का कोई निशां न था ।
- - शांतनु सान्याल
तमाशबीनों के बीच ज़िंदगी, नीलाम होती रही अक्सर,
हैरान से सभी चेहरे हाथ बढ़ाने को कोई मेहरबाँ न था,
धूप की अपनी है मजबूरी ढल चली सूरज के छुपते ही
प्याली बढ़ाई थी उसने, जब दिल में कोई अरमां न था,
हासिए से उभर के, कुछ जज़्बात तहरीर तक न पहुँचे,
लोग सोचा किए गूंगा जिसे, जनम से वो बेज़ुबाँ न था,
हर एक मोड़ पे यूं तो, ढेर सारे मंज़िलों के थे संगे मील,
जिस्म से हट कर रूह तक उतरने का कोई निशां न था ।
- - शांतनु सान्याल
वाह
जवाब देंहटाएंआपका हार्दिक आभार।
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