रग ए जां से गुज़रते तो जान पाते हाल ए दिल की बात, काँटों का ताज भी लगता है इश्क़ की अनमोल सौगात,
अक्स मेरा सतही था या रंगीन बूंदों का कोई बुलबुला,
गुल ए शबाना की तरह बिखरता गया वजूद आधी रात,
कोई तिलस्मी आईना था, जो मुझे कुंदन सा बना गया,
तिशना ए लब छू कर, ले गया ख़ुश्बू ए रूह अपने साथ,
संग ए अज़ाब की तरह सदियों से था मैं एक पैकर बेजान,
उसकी इबादत ए उरूज ने मुझको ज़िंदा किया आज़ाद ।
- - शांतनु सान्याल
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