शून्य आंगन में बिखरे पड़े हैं सूखे पत्ते,
टूटे पड़े हैं बांस के घेरे, असमय का
पतझर कर चला है दूर तक
अरण्य को सुनसान,
धूम्रवत सा छाया
हुआ है हर
तरफ,
जीवन खोजता है एक टुकड़ा आसमान,
इस दहन काल में भी सिंहासन का
खेल है जारी, हाहाकार करती
हुई जनता की कौन यहाँ
सुध लेगा, औषधि
से लेकर प्राण -
वायु की
हो
जहाँ काला बाज़ारी, शहर गांव सभी की
समान सी है लाचारी, फिर भी जीने
की अदम्य अभिलाष, बुझने
नहीं देती अंतिम आस,
इस मृत्युकाल का
एक दिन ज़रूर
होगा परिपूर्ण
अवसान,
असमय का पतझर कर चला है दूर तक
अरण्य को सुनसान - -
* *
- - शांतनु सान्याल
22 अप्रैल, 2021
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बहुत सुंदर प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंआपका ह्रदय तल से असंख्य आभार, नमन सह।
हटाएंबहुत ही सुन्दर रचना
जवाब देंहटाएंआपका ह्रदय तल से असंख्य आभार, नमन सह।
हटाएंइस मृत्युकाल का
जवाब देंहटाएंएक दिन ज़रूर
होगा परिपूर्ण
अवसान,
परमात्मा वो दिन जल्द दिखाए, सादर नमन
आपका ह्रदय तल से असंख्य आभार, नमन सह।
हटाएंजीवन खोजता है एक टुकड़ा आसमान...इस एक वाक्य ने सम्पूर्ण जीव जगत को समेट लिया। कितने ही चेहरे आँखों के सामने जीवंत हो उठे।
जवाब देंहटाएंसराहनीय सृजन सर।
सादर
आपका ह्रदय तल से असंख्य आभार, नमन सह।
हटाएंआपका ह्रदय तल से असंख्य आभार, नमन सह।
जवाब देंहटाएं