कहने को हमारे अंदर बहती हैं सहस्त्र
स्रोतस्विनी, फिर भी बहुत अकेली
होती है ये ज़िन्दगी, दरअसल
हम कई हिस्से में ख़ुद
को यूँ बांट जाते
हैं कि स्वयं
को देने
के
लिए कुछ भी बचा रहता नहीं, कहने
को हमारे अंदर बहती हैं सहस्त्र
स्रोतस्विनी। अनगिनत
तरंगों में बहते बहते,
फिर भी सूखती
नहीं हमारे
अंदर
की नदी, हाट बाज़ार, घाट किनार,
आकाश को छूते हुए, घूमते हैं
चाहतों के उड़न खटोले,
हर तरफ होता है
एक अंतहीन
शोर, मगर
भीड़
में भी हम होते हैं बेहद अकेले, लेन
देन थमता नहीं उम्रभर, कुछ
पलों के सुख के लिए सब
कुछ लगा आते हैं हम
दांव पर, जीत हार
का लेखा जोखा
पड़ा रहता
है वक़्त
के रेत पर, दोनों किनारों के दरमियां
लेकिन दूर तक कोई सेतु बंध,
कहीं नज़र आता नहीं,
कहने को हमारे
अंदर बहती
हैं सहस्त्र
स्रोतस्विनी। फिर भी बहुत अकेली
होती है ये ज़िन्दगी।
* *
- - शांतनु सान्याल
12 अप्रैल, 2021
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